निर्धन हूँ साहब!

निर्धन व दीन दुखियों की पीड़ा व्यक्त करती हुई मेरी यह काव्य रचना।

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Kumar Sandeep
Kumar Sandeep 13 Feb, 2020 | 1 min read

निर्धन हूँ साहब!

है ख़्वाहिश मेरी भी

विद्यालय जाकर पढूं

गढूं सफलता के नव

आयाम पर

बंधा हूँ गरीबी की जंजीर से

निर्धन हूँ साहब !

बारिश की बूँदों को भी

खुशी का पैगाम समझता हूँ।

निर्धन हूँ साहब !

जब उड़ाता हूँ कागज़ की पतंग

उस वक्त

अपने आप को खुश कर

लेता हूँ की,उड़ रहा हूँ मैं भी

आसमां में

निर्धन हूँ साहब !

फटे कपड़े पहनकर भी

खुश रह लेता हूँ

है ख़्वाहिश कि

नयी पोशाक मैं भी पहनूं पर

ये मुमकिन हो कैसे?

निर्धन हूँ साहब !

जब भूख होती है तो

पी लेता हूँ दो घूँट नीर की

ताकि

कुछ समय तक भूख मिट सके

निर्धन हूँ साहब !

रहता हूँ खुले आसमां के नीचे

महफूज हमें भी ख़्वाहिश है कि

रहूं आलिशान बंगलों में

निर्धन हूँ साहब !

करवटें बदल-बदलकर

काटता हूँ रात

असहनीय दुःख से

हो ऐसी सुबह जो

बदले मेरे जीवन को

निर्धन हूँ साहब !

दुखों का अंबार लिए

चलता हूँ फिर भी

झूठी खुशी से

चेहरे पर मुस्कान

लाता हूँ कि

कोई भूखा न कहे

पागल न कहे

अशोभनीय नामों से

न पुकारे

©कुमार संदीप

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