मेरा गांव मेरा घर।

पनघट का नज़ारा मेरा गांव मेरा घर। चौपाले सजती थीं कभी

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Sonia Madaan
Sonia Madaan 07 Jul, 2020 | 1 min read

याद आती है मुझे 

हरे भरे खेतों से निकलती 

वो संकरी डगर, 

पनघट का नज़ारा 

मेरा गांव मेरा घर।


चौपाले सजती थीं कभी

कहीं लगता था बच्चों का मेला,

नहरों में गोते लगते थे

वहीं, गांव की गोरियां

चलती थी शान से 

उठाकर एक साथ कई गगरियां।


खुले अंबर तले

बिछ जाती थी खटिया

मीठे सपनों से होती थी बात

ना फिकर कोई

चाहे दिन हो या रात।



लम्हा लम्हा गुजरता गया

रंग-ढंग भी बदलने लगे

कई भूल के गांव के रास्ते

नई मंजिलों की तरफ बढ़ने लगे

शाम वही, मोड़ वही

मौसम वही, भोर वही

पर कदमों के निशान 

धुंधले से दिखाई पड़ते हैं।



गलियों के उन कोनों से

गूंज सुनाई पड़ती है

एक बार तो आओ

सूने पड़े जो रास्ते

उन पर फिर से

गुज़र के तो जाओ।


मैं फिर लौटूंगा उन रास्तों पर 

अपने कदम की छाप छोड़ने को

उस बहती हवा में फिर से सिमटने को

खुले आसमान में सांस भरने को

मेरे गांव की मिट्टी

मैं फिर से लौटूंगा।


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Sonia Madaan

soniamadaan

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sunita Pawar · 3 years ago last edited 3 years ago

    बहुत सुंदर रचना❤️

  • Neha Srivastava · 3 years ago last edited 3 years ago

    Very good 💐💐

  • Sonia Madaan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thanks Sunita 😊

  • Sonia Madaan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thanks Neha😊

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