मन उजला

रंग भेद को कहीं भी जायज़ नहीं समझा गया। कई आंदोलन हुए इस अन्याय से जूझने के लिए। परन्तु आज भी ये समाज ही नहीं परिवार में भी व्याप्त है। किसी ना किसी रूप में। ऐसी ही समस्या को समाधान के साथ बताती मेरी कहानी।

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Shubhangani Sharma
Shubhangani Sharma 31 Oct, 2020 | 0 mins read
Make your child believe in themselves.

"अरे कुछ ना लेती माँ से बस रंग ले लेती तो अच्छा था..."

" हाँ ठीक कह रही हो मामी, माँ जितनी उजली नहीं कनक..."

तभी रसोई से कनक की माँ, शेफाली आती है और कहती है, " दीदी, माँ से रंग भी क्यों ले? मेरी कनु तो ऐसे ही खूबसूरत है...सांवरी सलोनी सी।" शेफाली ने हँस के बात टाल दी पर वह जानती थी यह तुलना कनु के साथ हमेशा रहेगी। इसलिए वह हमेशा प्रयास करती कि कनक के मन में हीन भावना ना आए।

वह सदैव उसे सही शिक्षा देती और उसे विश्वास दिलाती कि वह खूबसूरत है। फिर भी वह हार जाती जब भी उसकी दादी कहीं जाने से पहले कनु से पाउडर लगाने को कहती।

फिर एक दिन उसने कुछ ऐसा देखा जिससे उसका दिल टूट गया। कनु सफेदी में पुती हुई आईने के समक्ष खुद को निहार रही थी।

"अरे कनु...!!! ये क्या ?? कितना पाउडर लगाया है...क्यों बेटा??"

"माँ... आज मुझे डांस में पीछे की लाइन में खड़ा कर दिया और परी को आगे..."

"तो क्या?? वह अच्छा डांस करती होगी.."

"नहीं माँ वो सुंदर और गोरी है।" कनक ने उदासी से कहा। शेफाली ने उसे गले लगा लिया। वह चिंतित हो गयी...कहीं मेरी बेटी इस गोरेपन की दौड़ में खो ना जाये। उसने बड़े स्थिर स्वर में कनक को समझाया, " बेटा... काले गोरे से कुछ नहीं होता...आप सबसे प्यारी हो... और सबसे बड़ी बात हमारा दिल गोरा और साफ होना चाहिए ना कि हमारी बाहरी रंगत...आप जैसे हो वैसे रहो...और अपने गुणों को निखारो ताकि कोई आपको नज़रअंदाज़ ना कर सके।"

उस दिन से शेफाली ने कनक को फिर पाउडर लगाते नहीं देखा। पर उसे फिर हारने का डर था। कनक को वह प्रोत्साहित करती रहती कभी उसके नृत्य के लिए, उसकी लेखनी के लिए या कभी किसी और बात के लिए।

फिर एक दिन जब वे किसी वैवाहिक कार्यक्रम में गए तो कुछ ऐसा हुआ जो बहुत खूबसूरत था। किसी ने कनु की दादी को ढूंढते हुए पूछा, " क्या ये छोरी आपकी है।"

दादी ने हामी भर दी।

उस व्यक्ति ने कहा, " बड़ी होशियार और समझदार है।"

"क्यों भैया क्या हुआ??" दादी ने पूछा।

"अरे बहनजी, यह अपनी दोस्त के साथ खेल रही थी। मेरे मुंह से निकल गया कि इसकी दोस्त गोरी है और ये काली।"

दादी उदास हो गयी। यह देख सज्जन ने फिर कहा, " पर इसने जो कहा वह सुन मेरा मन खुश हो गया। यह बोली ... दादू मैं काली ज़रूर हूँ पर मेरा मन बहुत उजला है।" यह सुन दादी भी फूली नहीं समायी और घर पर सबको ये वाकया सुनाया।

अंततः शेफाली ने लंबी सांस ली...उसकी बेटी आखिर इस काले गोरे के चक्रव्यूह से मुक्त हो गयी। वो जीत गयी...और उसकी सांवरी भी।

शुभांगनी शर्मा







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