ये दिल मेरा न जाने कब क्या कर जाएगा,
कब-तक देगा साथ ये मेरा कब डर जाएगा,
अनजाने से ज़ख्मों से छलनी तो अरसों से है,
कितना और सहेगा और कब ये बिखर जाएगा,
हर क़दम सोच-समझकर बेधड़क हो बढ़ाता है,
कब-तक रहेगा यूँ ही बेबाक, कब सिहर जाएगा,
अब तक दर्द में मुस्कुराना सिखाता रहा है ये मुझे,
न जाने कब किस ग़म में ये भी पूरी तरह तर जाएगा,
और अगर दिल पर ही हों सारी ज़िम्मेदारीयाँ “साकेत",
तो न जाने कब मेरे दिल का, मुझसे भी मन भर जाएगा।
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