तुमने छोड़ा साथ और चलना आ गया मुझे,
हर माहौल में, हर ढंग में ढलना आ गया मुझे,
ख़ुद की क़ीमत, ख़ुद भी न समझ पाया था मैं,
तुम्हारी ठोकर के सहारे, निखरना आ गया मुझे,
उम्मीद न थी कि इतने के बाद उभरूँगा मैं कभी,
मगर ज़ख्मों से लड़कर ही सँभलना आ गया मुझे,
पाँव के छालों ने कभी रोका ही नहीं मुझे चलने से,
तुम्हारी थी मेहरबानी थी कि ठहरना आ गया मुझे,
करे भी तो कैसे करे “साकेत" शुक्रिया अदा तुम्हारा,
तुम्हें ही देख-देख कर, रंग भी बदलना आ गया मुझे।
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