आँखें मूँद कर चला हूँ शायद,
हर ओर अँधेरा नज़र आता है,
न सफ़र से कोई उम्मीद जगी है,
न अब कोई रास्ता नज़र आता है,
ये ज़िन्दगी जैसे बेरंग हो चली अब,
जिधर देखो धुँध काला नज़र आता है,
न कोई हमराही, न हमसफ़र मिला मुझे,
जो कोई मिला, गम का मारा नज़र आता है,
ये कैसी कश्ती है, जिसमें सवार हो “साकेत",
न दरिया दिखता है, न किनारा नज़र आता है।
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