बीच डगर का सफ़र

कभी कभी ऐसा लगता है ज़िंदगी जी तो रहे हैं हम मगर जीने को कुछ है ही भी ना दुःख है ना सुख है, ना कोई हमसफ़र है, ना किसी की गुंजाइश है.... मतलब सफ़र बिल्कुल उबाऊ सी लगने लगती है

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Saket Ranjan Shukla
Saket Ranjan Shukla 30 May, 2020 | 1 min read

कुछ पाया नहीं, कुछ खोया नहीं,

कभी हँसा नहीं, तो कभी रोया नहीं,

ज़िन्दगी बीच डगर पे ही चलती रही,

हर शाम मेरे लिए, बेरंग सी ढलती रही,


ना कुछ खास मिला, ना ही किसी की ख्वाहिश थी,

ना ही किसी से मिला मैं, ना किसी ने मेरी आजमाइश की,

वक़्त ने यूँ तन्हा ही रखा मुझे इस सफ़र में, ना जाने क्यों,

या शायद मैंने ही नहीं कभी, किसी हमसफ़र की फरमाइश की,


ना जाने ऐसे ज़ख्म मिले भी हैं? जिन्हें अब तक मैंने धोया नहीं,

क्यों फिर रातें जागकर काटी हैं, क्यों इतनी सारी रातें सोया नहीं?

BY:—© Saket Ranjan Shukla

IG:— @my_pen_my_strength

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