प्रेम ये शब्द तिलिस्म सा लगता था उसे,किताबों, कहानियों, कविताओं, शेरों शायरी इन सब में प्रेम के बारे में बहुत पढ़ा सुना था,पर उसे हकीकत की जमीन पर यह बकवास ही लगता था।
वह यानि ऋचा अक्सर जब भी प्रेम के बारे में किसी से सुनती थी तो उसे हँसी आती थी,उसका मानना था कि हकीकत में प्रेम जैसा कोई शब्द नही है।जब जिंदगी की कड़वाहट से प्रेम का सामना होता है तो प्रेम छू मंतर हो जाता है।
प्रेम वास्तव में बस एक कोरी कल्पना है,सुनहरा ख़्वाब है इससे ज्यादा कुछ नही ।अक्सर वह ऐसा सोचा करती थी।
उसने कभी ये सोचा नही था कि वह किसी से प्रेम करेगी।पहला तो प्रेम को लेकर जो सामाजिक अवधारणा बनी हुई थी,जहाँ प्रेम से माता पिता के इज्जत को जोड़ा जाता था तो वह माता पिता के इज्जत पर आँच नही आने दे सकती थी।
दूसरी उसे लगता था कि प्रेम जैसे शब्द उसके लिए बने ही नही हैं।
पर ऋचा को यह नही मालूम था कि ईश्वर की योजनाएं हमारी सोच से बहुत ही आगे होती है।
वह हमें उम्र के किस मोड़ पर कब किससे मिला देता है हम उसे जान ही नही पाते।
पता नही ईश्वर का क्या प्रयोजन होता है,जिसे हम कभी नही समझ पाते हैं।
ऋचा के साथ भी यही हुआ था।अनजाने ही साधारण चैट से शुरू हुई बात फ़ोन कॉल तक पहुँच गयी।
ऋचा को एक अनोखा सा एहसास होने लगा था।हालाँकि उसके मन के किसी कोने में अनेकों डर थे,पहला कही ये एकतरफा प्यार तो नही,दूसरा इसका पता किसी और को चला तो।
पर दिल और दिमाग के जंग में हमेशा हार दिमाग की होती।
वह दिल की बात सुनकर काल्पनिक खुशियों का संसार बसा चुकी थी।
जहाँ किसी तीसरे का प्रवेश नही था।बस वो थी उसकी कल्पना थी।पर हाँ ,अपने सुख दुख सबको एक दूसरे को साँझा करती।और इतने में ही वो खुश थी।और ईश्वर का शुक्रगुजार थी कि उसकी जिंदगी में एक ऐसे इंसान को शामिल किया जो भले हर पल साथ नही हो ,पर हर दुख में मरहम की तरह था ,और हर सुख में उत्सव की तरह था।
पता नही यह प्रेम का क्या स्वरूप था,ऋचा को नही पता था कि वह सही है या गलत।
पर ऋचा को प्रेम था।और वह रूह से जुड़े इस प्रेम में ही खुश थी,और उसे इसके अलावा कोई चाहत नही थी।
प्रेम का यह रूप बड़ा ही विचित्र था,अगर कोई इसे सुनता तो उसे यकीन नही होता कि आज के दौर में भी ऐसे प्रेम होते हैं जहाँ कोई अपेक्षा नही थी,मिलन की कोई आस नही थी, न तन की चाहत।बस था तो एक दूसरे के लिए परवाह ,फिक्र,ख्याल।मानो दोनो रूह से जुड़ चुके हो।एक कि तकलीफ दूसरे की तकलीफ बन जाती थी।सारे सामाजिक लोकाचार और अपनी अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए,बस चंद बातें फ़ोन पर कर लेना ही उनकी आत्म संतुष्टि का जरिया था।कभी कभी ऋचा को यह लगता था कि काश यह दुरियाँ यह मजबूरियाँ नही होती।
फिर उसे यह भी लगता था कि दूरियाँ जमीनों में है ,जिस्मों से हैं दिलों से तो नही।
यूँही वक्त गुजरता गया दिन महीने साल बीतते गए।पर उनकी दिनचर्या में कोई फर्क नही आया।अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए रात का वो फोनकॉल जिस पर वे दोनों अपने दिन भर की दिनचर्या एक दूजे को सुनाते।
अचानक से एक दिन ऋचा के कॉल नही आये प्रवीण ने सोचा कि शायद कुछ व्यस्तता होगी।करवट बदलते उसने रात बताई।फिर दूसरा दिन ,तीसरा दिन ,दिन बीतते जा रहे थे।प्रवीण सोचता कि वह कॉल करे पर ऋचा का कहा याद आ जाता कि आप कॉल न करियेगा,मैं करूँगी।वह रुक जाता।पंर एक सप्ताह से ज्यादा जब हो गए तो प्रवीण खुद को रोक नही पाया उसने कॉल किया तो पता चला कि ऋचा बहुत बीमार है और अस्पताल में भर्ती है।इतना सुनने के बाद प्रवीण मुंबई से फ्लाइट से सीधे भेलौर पहुँचा जहाँ ऋचा भर्ती थी।और फिर ऋचा को देखते ही रो पडा।उसकी स्थिति उससे देखी नही जा रही थी।उसे लगता कि काश उसके वश में कोई जादू की छड़ी होती तो वह पल में सब ठीक कर देता।अस्पताल में लंबी कतारें ,टेस्ट,रिपोर्ट्स,दवा सब लाने का जिम्मा उसने ले लिया था।वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही ऋचा को खोना नही चाहता था।ऋचा के घर वालों के मन में भी यह प्रश्न घूम रहे थे कि यह अनजान लड़का कौन है जो उसकी बेटी की मदद कर रहा।अपनी परवाह किये बिना दिन रात सेवा में लगा है।उसे लगा कि अगर उसने देर की तो बहुत देर हो जाएगी और उसने ऋचा के भैया को अपनी पहचान की बात बताकर शादी की ख्वाहिश जाहिर की।उसके भैया को आश्चर्य हुआ कि जिंदगी और मौत के बीच झूल रही उसकी अपाहिज बहन से कोई शादी भी कर सकता।उन्होंने प्रवीण को सोचने के लिए कहा ,पर प्रवीण अपने निर्णय पर अटल था।और काफी सोच विचार के बाद कशमकश में दोनो की शादी हो गयी।
ऋचा का पुनर्जन्म हो गया और दोनो खुशी पूर्वक साथ रहने लगे।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत सुंदर
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