उलझनें मन की

उलझन

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 12 Mar, 2021 | 0 mins read



मन की उलझनों का नही मिलता कोई सिरा,

जितना ही सुलझाने की कोशिश किया उतना ही उलझा।

चोट मन में लगी क्योंकर लगी कैसे लगी,

ये पता ही नही मेरे मन को कभी चला।

इम्तिहान जिंदगी में दिए ,रोज ही दिए,

अब तो जिंदगी ही इम्तिहान बनकर दिखने लगा।


उलझनें मन की सुलझाने की हर कोशिश नाकाम ही रहा,

अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच अंतर्द्वंद्व हरदम रहा,

जो मिला उसका शुकराना किया ही नही,

जो न मिला उसका अफसोस हमेशा सालता रहा।


भावनाओं का ज्वार मन में उठता ही रहा,

और मरुस्थल सा मन सदा प्यासा ही रहा,

एक हुक दिल में उठी और बेचैनीयां बढ़ी,

मर्माहत सा सिर्फ मन ही नही आत्मा भी रहा।


उलझनें मन की कहाँ सुलझा कभी वह उलझा ही रहा,

सिरा सुलझाने का ढुढते रहे और उम्र यूँही जाया होता रहा,

अब तो साँस के साथ ही ये जाएगी उलझनें,

बस यही जिंदगी में एक उम्मीद है बचा।



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