नजरिया अपनी नजर में

नजरिया अपनी नजर में

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 07 Aug, 2021 | 1 min read






मुद्दतों बाद अपने अक्स को आईने में देखा,

दिखी मुझको चेहरे पर खींची एक रेखा,

खो गयी बचपन की चंचलता चपलता कहीं,

चेहरा बता रहा मेरी जिम्मेदारियों का लेखा- जोखा।


वो हँसती-खिलखिलाती रुचि नहीं मिल रही थी,

अधर पर मुस्कान और चिंतन मन में पल रही थी,

भूत का संघर्ष मन पर डेरा जमाये था बैठा,

भविष्य के भय से क्षण- प्रतिक्षण गल रही थी।


रिश्तों को निभाने की शिद्दत बड़ी दुखदाई बनी,

ख़ुद का स्वभाव ही ख़ुद के लिए हरजाई बनी,

आँख मूँदकर दोस्ती और दोस्तों पर किया भरोसा,

ये फ़ितरत ही खुद के लिए आताताई बनी।


ईश्वर पर यकीन हर समस्या में आत्मबल बना,

मगर अपेक्षाओं की आग में मन हर पल जला,

न हो तकलीफ़ अपनों को इस वज़ूद के कारण,

इसलिए उनके ही साँचे में अस्तित्व अपना ढला।


ये तमग़ा-ए-हिम्मत का नोंच फेंकना है,

एक बार कमजोर बन घुटने टेकना है,

शरीर की थकान तो मिट ही जाती है,

पर मन के थकान को मिटा ऐंठना है।


बस सीधे सरल वज़ूद का इतना मुकाम हो,

हर चेहरे पर मुस्कान लाऊँ इतना एहतराम हो।

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