अव्यवस्थित सा दिख रहा हर तंत्र है,
क्या सचमुच हो गए हम स्वतंत्र है?
कही गोदामों में अनाज है सड़ रहा,
कही गरीबी और भूख से है मर रहा,
कही ऊँच नीच की खिंची दीवार है,
कही धर्म के नाम पर इंसान झगड़ रहा।
क्या सचमुच हो गए हम स्वतंत्र है..
भ्र्ष्टाचार की खाई बड़ी ही गहरी है,
इंसानियत वहीं पर आकर ठहरी है,
सफेदपोशी का चादर है ओढ़े हुए,
मानवता भी हो गयी है बहरी है।
क्या सचमुच हो गए हम स्वतंत्र है...
बेटियों के अस्मत की सुरक्षा नही,
पर्यावरण की होती भी रक्षा नही,
विकास के अंधाधुंध दौड़ में दौड़ते,
मूर्ख है पढ़े लिखे दिखती अशिक्षा नही।
क्या सचमुच हो गए हम स्वतंत्र है...
देखादेखी के दौड़ में है सब भाग रहे,
खुद को ही मुसीबत में है डाल रहे,
सभ्यता और संस्कृति पर भी खतरा है,
रीति रिवाज को भी है सब त्याग रहे।
क्या सचमुच हो गए हम स्वतंत्र है...
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