फागुन का खुमार

ये कैसा त्योहार

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 22 Apr, 2021 | 0 mins read



चारों तरफ रंग और अबीर की रौनक छाई हुई थी,बच्चे,बूढ़े,जवान सब अपनी धुन में मस्त होकर हुड़दंग मचा रहे थे।

कोई रंगों से बच रहा था तो कोई लगाने के लिए दौड़ रहा था।

कुछ बुजुर्ग अपने दरवाजे पर बैठकर इसका आनंद उठा रहे थे और अपने जमाने की बात दोहरा रहे थे।

घरों से पकवान की खुशबू मुँह में पानी लाने के लिए काफी थी।

पर एक घर ऐसा भी था जहाँ मातम पसरा हुआ था।

सरिता कोने में बैठकर आँसू बहा रही थी और अपने तकदीर को कोस रही थी।

उसके दोनों बच्चे उसके साथ चिपके हुए एकदम शांत थे।

वह अपनी माँ को रोता हुआ देखकर डर गए थे।

चूल्हे की आग जल जलकर बुझ चुकी थी।

पुआ के घोल का बर्तन उल्टा पडा था और सारा घोल जमीन पर बिखरा पड़ा था।

उसका पति मोहन नशे में धुत जमीन पर औंधा पड़ा था।

सरिता बार बार यही सोच रही थी कि आखिर उसका कसूर क्या था जो उसके पति ने उस पर अभी लात जूते बरसा कर दुनिया को भुलाकर बेहोश था।

क्या सिर्फ इतना कि उसने अपने पति को त्योहार के दिन अंधाधुंध शराब पीने से रोका था,या फिर एक माँ के रूप में उसे बच्चों का वास्ता दिया था,

या फिर ये की एक स्त्री के रूप में उसकी भी चाह थी कि वह अपने पति बच्चे के साथ खुशी खुशी त्योहार मनाएं

और त्योहार का आनंद उठायें।

या फिर एक स्त्री होना ही कसूर था जिस पर जब मर्जी हो उसका पति हाथ उठा सके।

फाल्गुन का खुमार शराब में उतर चुका था,और अविरल आँखों से आँसू बह रहे थे।


स्वरचित और मौलिक


रूचिका राय

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