अंतर्द्वंद

मन के अंदर

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 03 Aug, 2021 | 1 min read


 अंतर्द्वंद पराकाष्ठा यही,

बाहर से शांत नीरव दिखे

और मन में शोर बड़ी।

चाहते थे चीख कर शोर मचाये,

पर तहजीब थी सामने आ खड़ी।

बेतहाशा दर्द सीने में

टीस देती हर घड़ी,

भटक रहे थे दर बदर

मन के डगर

कमी कहाँ थी जो रेत की तरह फिसल गये

कुछ रिश्ते जो करते थे अपनेपन की शोर बड़ी।

सँभालने में कमी रह गयी

या सँभालना नही आया।

या कुछ नाकाबिल हम हुए,

जो मेरा संग रास न आया।

वाकई उधेड़बुन में अनायास आ जाता मन

अचानक से किसी भी घड़ी।

वक़्त का पहिया सरकता रहा,

लोग पल पल बदलते रहे,

हम वही के वही खड़े रह गए

चोट थी दिल पर गहरी बड़ी।

अंतर्द्वंद जिंदगी के साथ चलता ही रहेगा

मौत आने तक नही थमेगा।

काश कोई सिरा मिल जाये

तो सुलझा ले यह उलझन लगती अब जिंदगी से बड़ी।

स्थितियों के प्रभाव में आ गए,

अंतर्द्वंद मन में घर बना रहे।

लग रहा है टूट रही हिम्मत कभी

तो कभी लगता लड़ना है हमें जंग बड़ी।

अंतर्द्वंद तमाम 

कैसे निकले पार

यह समस्या मुँह बाये खड़ी।

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Comments

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  • Deepali sanotia · 4 years ago last edited 4 years ago

    ख़ूबसूरत भाव

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