पहचान उन्ही के रस्ते हैं
वो जान में मेरी बसते हैं।
नाजुक से ये रिश्ते जाने कैसे,
तूफां में बैखौफ शैल से हंसते हैं।।
मांझी इस जीवन कश्ती के,
मालिक वो मेरी हस्ती के।
लफ्ज़ ए जुबां बन जाए नज़्म,
उनपर लिख दूं पूरी किताब,
वो ऐसी शख्सियत रखते हैं ।।
गुमनाम अंधेरों से निकली,
आवाज़ में कुव्वत उनकी है।
हर दर्द मिटा दे पल भर में ,
वो हर्ष की दावत उनकी है।।
मिलकर उनसे हर बार मेंरे,
येे नयन-पुष्प खिल जाते हैं।
जैसे बिछड़े हों सदियों से,
मेरे तन चेतन मिल जाते हैं।।
हम तो अब ख्वाब में भी,
उनके ही नाम जपते हैं।
वो ऐसी शख्सियत रखते हैं।।
उमंगों का सागर बनके,
उनकी लहरें उठती तन के।
हमको तो बहा ले जाती है,
दिव्यलोक-से रस्ते बुन के।।
भक्ति मेरी,शक्ति मेरी,
मेरा मोह,आसक्ति मेरी।
आधा जीवन वो ही विशेष,
आधा जीवन उन पर ही शेष।।
इस मन के बंजर आंगन में,
सावन बन के वो बरसते हैं।
वो ऐसी शख्सियत रखते हैं।।
जितने भी मेरे बेराग गीत,
उनकी सरगम वो ही हैं।
हंसते जो मेरी बर्बादी पर,
हर ज़ख़्म के मरहम वो ही हैं।।
वो सर्वज्ञ जैसे बैठे हैं शिखा पर,
उनकी अनुकंपा,मैं तो हूं निशाचर।
तिल भर ही उनके दिल के कोने में,
हम रह पाएं इतनी सी आशा रखते हैं।
क्योंकि वो ऐसी शख्सियत रखते हैं।।
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