अनंत नाद बज उठा,
घना अंधेर सज चुका।
गगन ने की शिकायतें,
के रक्त तेरा जम चुका।।
प्रचंड आंधियाँ उठी,
ज्वाला मशाल जल चुकी।
ना चेतना जगी अभी,
विनाश की सभा बिठी।।
धरती सवाल कर रही,
हर आकृति बदल रही।
नजर उठा के देख लो,
प्रकृति पे क्या गुज़र रही।।
ये कैसा अल्पज्ञान है,
विध्वंस अब विकास है।
संभल संभल कदम बढ़ा,
हर भूल अब विशाल है।।
नदी की धार मंद है,
समंदरों में गंद है।
खिसक रहे शिखर कहीं,
धरणी में भी स्पंद है।।
सूखी नदी ना वन बचे,
सबको यहां बस धन जंचे।
हर सांस दूषित अब यहां,
इस हाल में आगे भी कुछ अच्छा मुमकिन कहां।।
जिनका शुरू जीवन हुआ,
उनके लिए तो बक्श दो।
जीवन में दस बारह नही,
बस एक ही तुम वृक्ष दो।।
Comments
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Well done, good thought
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