छोटे काम

कोई काम छोटा नही होता

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rekha shishodia tomar
rekha shishodia tomar 06 Jun, 2020 | 1 min read

"आजा मेरी बच्ची..तू तो ऐसी विदेश में जाके बसी की गले लगाने को तरस गईं मैं तो.."

"मैं भी मम्मी.. बहुत मिस किया आप सबको.."

फिर मैं अक्षत की तरफ घूमकर बोली"और भाई कैसी चल रही है लाइफ"??

"बस मजे में है..कोई अच्छी सी जॉब मिल जाए तो सेट हो जाए लाइफ"

"पर मम्मी तो बता रही थी की कई जगह जॉब का ऑफर मिला.."

"अरे वो कोई जॉब है..कम से कम तीस हजार प्रति महीना मिले तो करू शुरुआत"

"लेकिन कहीं ना कहीं से शुरू करना था..एक्सपीरियंस भी तो कोई चीज़ है..."

",अरे छोड़ो दीदी,अभी आई हो,क्या बातें लेकर बैठ गई..हो जाएगा सब कुछ"

इतना कह अक्षत लापरवाही से घर से कुछ नाश्ता लेने निकल गया..

रजनी ने घूम कर माँ की तरफ देखा उनके चेहरे पर परेशानी,झुंझलाहट साफ दिखाई दे रही थी...

"मम्मी,आखिर आपका लाडला करना क्या चाहता है??"

"पता नही बेटा.. नवाबी ठाठ में रहना है बस उसे..ना बाप की बढ़ती उम्र की चिंता ना घर की आर्थिक स्थिति की..छोटी मोटी जॉब करनी नही,बड़ी जॉब मिल नही रही..."

"पापा ने समझाया उसे??"

"बहुत समझाया,नतीजा ये हुआ कि बाप बेटे के बीच एक अनदेखी रेखा सी खिंच गई है.."

"हम्म,चलो देखते है क्या कर सकते हैं.."

सुबह रजनी एक छोटा सा बैग लिए निकली,

माँ ने देखकर पूछा"सुबह सुबह कहाँ ये बैग लेकर??"

मम्मी मॉर्निंग वॉक जाते हुए ये एक दो ड्रेस प्रेस वाले को देनी है..इतना कह रजनी निकल गईं..

माँ शायद कुछ बोलने वाली थी पर तब तक वो निकल चुकी थी...

रजनी दो बार गली को पार कर चुकी थी पर प्रेस की दुकान नही दिखी,वो सोचने लगी,

2 साल पहले आई थी तो यही थीं.अंकल सुबह 6 बजे खोल लेते थे शॉप..कई बार स्कूल यूनिफार्म साथ के साथ प्रेस करवानी होती थी तो यहीं भागी आती थी वो सुबह सुबह..

जब शॉप नही मिली तो वो कपड़े बेंच पर रख पार्क के दो चक्कर लगा वापस घर की तरफ मुड़ गई..

तभी बाइक से आते एक लड़के को देख लगा, कहीं देखा है इसे तो..

बाइक उसके पास आकर रूकी ,लड़के ने मुस्कुराकर नमस्ते किया तो वो पहचान गई..

"अरे तुम तो पूनीत हो ना,प्रेस वाले राजेश्वर अंकल के बेटे??"

"जी दीदी मैं ही हूं..पर पापा अब प्रेस वाले नही है"

"क्यो क्या हुआ..मैंने भी सुबह शॉप देखी,दिखी नही मुझे"

"दीदी मेरी या कहिये पापा की अब कपड़ो की बहुत बडी दुकान है,शोरूम से थोड़ी छोटी..मैं लोन के लिए try कर रहा हूं..अगर मिल गया तो शोरूम में बदल दूंगा दुकान को.."

"अरे वाह छोटे..कैसी चल रही है दुकान"??

"बस दीदी आप सबका आशीर्वाद है..अभी 35हजार महीने तक कि बचत हो जाती है..शुरू में तो बचत का उपयोग दुकान को बढ़ाने और पहले लिए लोन की क़िस्त जमा करने में किया.."

"अब लोन उतर गया तो सोचा फिर से एक बार लोन लेकर शोरूम बना लू"

"बहुत अच्छी बात है,पर ये सब कब कैसे हुआ??"

मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थीं..मैं जानना चाहती थी जो परिवार जिसमे पति पत्नी बेटा और दो बेटियां घरो से कपड़े इक्कठे कर प्रेस करने में पूरा दिन निकालते थे ..उनका ये काया कल्प कब हो गया..

पूनीत अक्षत के साथ ही पढ़ा था. तंगी के हालात में भी अंकल ने बच्चो की पढ़ाई के साथ कोम्प्रोमाईज़ नही किया..

पापा की स्थिति भी कोई खास नही थी..,बहुत ही छोटे पद पर सरकारी मुलाजिम थे..पूनीत और अक्षत दोनो ही सरकारी स्कूल में पढ़े. तीक्ष्ण बुद्धि के कारण पूनीत को सरकारी अनुदान मिलने लगा जिससे उसकी पढ़ाई का काफी बोझ अंकल के सर से उतर गया...

धीरे धीरे अंकल का काम बढ़ने लगा,पूनीत आवारागर्दी करने की बजाय पिता के काम मे बिना किसी झिझक और शर्म के हाथ बंटाने लगा..

जब जवान बेटे ने हाथ पकड़ा काम मे तरक्की और बरक्कत भी होने लगी..

उसके बाद उसकी शादी हो गई और आज 2 साल बाद वो मायके आ पाई है..

पूनीत बता रहा था.."दीदी जब इस्त्री का काम बढ़ता गया तो मैंने और पापा ने मिलकर बचत से dryclean करने की पुरानी मशीनों को खरीद कपड़े dryclean करने का काम शुरू किया..मेहनत से बढ़ते गए फिर उसी के बेस पर लोन लिया..पापा के एक परमानेंट ग्राहक ने हमारी मदद की.."

"कुछ पैसे इस्त्री वाली शॉप को बेचकर मिले, अब हमने मेन मार्किट से थोड़ा अलग एक बड़ी सी दुकान लेकर रेडीमेड कपड़ो का काम शुरू किया है..मैं पूरी तरह अपना समय और ऊर्जा उसमे दे सकू इसलिए ग्रेजुएशन के बाद गैप लिया है.."

"एक बार काम जम जाए फिर साथ साथ दोबारा पढ़ाई शुरू करूँगा.."

"बहुत अच्छा लगा सुनकर की तुमने लीक से हटकर सोचा और किया,वरना आजकल बच्चे छोटे मोटे काम करने में शर्म महसूस करते है"

"कौनसा छोटा काम दीदी,??जिस इस्त्री के काम से मेरा परिवार चला,हम भाई बहनों की पढ़ाई हुईं..एक बहन की शादी की..वो छोटा काम कैसे हो गया??

"छोटा काम तो चोरी करना, धोखा देना होता है..अच्छा दीदी चलता हूं,शॉप खोलने का टाइम होने वाला हैं, सफाई भी करनी है जाकर"

नमस्ते कर वो निकल गया और मैं खड़ी सोच रही थी क्या जो कुछ पूनीत ने किया या जो हुआ वो वाकई इतना आसान था जितना सुनने में लगा..??

क्या उसने सोचा और सब उसके हिसाब से होता चला गया या उसके दिमाग मे प्लांनिग काफी पहले से थी और वो अपने लक्ष्य के प्रति जागरूक और डेडिकेटेड था..

जो भी था ये सिर्फ एक किस्सा था..हम सबके आसपास ऐसे कई किस्से होते है जिसमे हमने किसी इंसान को जमी से आसमा तक का सफर तय करते देखा होगा..

पर गौर करियेगा सब किस्सों में एक बात जरूर होती है वो है परिवार का आपसी सहयोग,एक दूसरे पर विश्वास,कठिन समय मे साथ खड़े रहना और सबसे जरूरी किसी निर्णय के गलत साबित होने पर जिम्मेदारी पूरा परिवार ले ना कि किसी एक के सर पर ठीकरा फोड़ दिया जाए...

और यही सब था जो रजनी के परिवार में हो रहा था..काश भाई के ग्रेजुएशन में एडमिशन लेते ही पापा दिन रात 5 अंको की सैलरी का राग ना गाते..

मार्क्स कम आने पर "तु बस कंडक्टरी करना,किराए पर गाड़ी चलाना ,पूनीत की तरह इस्त्री की दुकान खोलना",ये सब कहकर दूसरे कामो को अक्षत की नजरों में छोटा ना जताते..

रेखा तोमर

स्वरचित एवम मौलिक


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