मैं चेहरा एक आत्मकथा हूँ,
खुद की कहानी हूँ,
जो खुद ही बयान करता हूँ,
लिख सकता तो मैं खुद पर किताब लिखता,
फिर सोचता हूँ कि मैं हूँ तो अनगिनत ना जाने,
कितनी किताबे लिखता और उसमे क्या लिखता,
खुशी भी झलकती हैं मुझसे, गम भी पता चल जाता हैं,
कितने आँसू बहाए है हमने, सब नम आँखों से समझ मे आता हैं,
खुली दास्तन हूँ मैं जो चाहे पढ़ सकता हैं,
समझ नहीं आती मैं हर किसी को,
शायद जज़्बात झुपाने में कोई चेहरा माहिर लगता हैं,
वो वक्त और था जब चेहरा मन की आवाज़ होता था,
बिन बोले ही सब कुछ कहता था,
अब मुखौटो का दौर हैं,
हर चेहरा इसमे दिखता कुछ और है और होता कुछ और हैं,
बुझो तो जाने हर शक्ल ऐसी हो गई हैं,
समय नही है लोगो के पास पहचानने का,
ऊपर से मुखौटो मे शक्लें भयावह हो गई हैं.
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