मैं सूख रही हूँ, मैं बंजर हो रही हो, कहीं बह रही हूँ तो कहीं धस रही हूँ,
रोज़ना ही मेरे अंदर कुछ बदल रहा है, मालूम है मुझे क्या इंसानों को भी ये बदलाव दिखाई दे रहा है,
रोज़ाना तपन बढ़ रही है मेरी, जाड़ा भी जमा रहा है, बारिश की भी फितरत बदल गई है,
और बादल भी फट कर कहर बरपा रहा है, कितने संकेत दूँ मैं अपनी बिमारी का,
आओ बचा लो मुझे समय रहते ही, ऐसा ना हो के मैं मर जाऊँ कहीं,
हरियाली की कमी मुझे खल रही है, पक्की सड़कों को देख मेरी उदासी बढ़ रही है,
पेड़ लगाओं का नारा देने वाले ही पेड़ काट रहे है, मेरी तरफ देखते भी नहीं सब अपनी चलाए जा रहे है,
उन्हें क्या पता कि उनकी बेपरवाही मेरी नींव हिला रही है, मेरी भी बर्दाशत करने की क्षमता खत्म होती जा रही है,
सचेत करती रहती हूँ मैं भूकम्प के झटको को बुलाकर, तो कभी लहरों में तूफान बुलाकर,
पता नहीं क्यों कोई ध्यान नहीं देता, नज़रअंदाज़ करता है ऐसे जैसे कि भूल गया हो मुझे अखबार की हेड़लाइन समझ कर,
आओं बचा लो मुझे समय रहते ही, ऐसा ना हो के मैं मर जाऊँ कहीं,
देखों ज़रा तुम्हारी सहूलियत ने मेरा क्या हाल कर दिया, साफ आसमान काला किया और चाँद को भी छुपने पर मजबूर कर दिया,
बर्फ की चट्टानें भी पिघल रही है, धीरे - धीरे ये भी समुद्र के पानी में इज़ाफा कर रहीं है,
पहाड़ों को भी तुम्हारी नज़र लग गई, अच्छी - खासी अड़ीग थी, अब ये भी खिसकने लग गई,
पता नहीं आगे क्या होने वाला है, तुम मुझे कभी समझोगे क्या, या फिर मेरा अंत होने वाला है.
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धरती की पुकार 🙏🥺
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