कहां गया वो रंगीला बचपन, ना जाने कहां खो गया
याद आया वो बचपन का ज़माना , वो सब तामझाम,
गुड्डे -गुड्डियों की शादी , प्यार का लड़ाई झगड़ा तमाम
वो कट्टी-बट्टी का खेल, वो दस पैसे के लालच में दौड़ कर करना काम,
अब तो सब घर पे ही डिलिवरी हो जाता कितना हो गया आराम।
एक ही बिस्तर में सबको घुसने का झगड़ा, अब सबके हैं अलग- अलग रूम ।
किसकी मां , किसके पिता जी , लड़ते थे सब इस बात पे कितना ,
अब तो डैड भी मेरे , माम भी मेरी खत्म हो गया सब झगड़ा तमाम ।
मां के हाथ की भाजी - तरकारी सब लगती थी कितनी प्यारी,
अब केवल पीज़ा - बर्गर ने बढ़ाया स्वाद , बचपन का वो ज़माना आया याद ।
ना कंचे ,ना गिल्ली - डंडा, ना स्टापु ,ना खो-खो खेलना ,
अब तो मोबाइल गेम खेलना हो गया आसान ।
जो साईकिल चला करके जाते थे स्कूल, कालिज, बाज़ार, अब तो एक्सरसाइज के वो आती है काम
घुमा कर रोटी को गोल-गोल करके कभी आलु , कभी उसमें शक्कर भरना , अब तो काथी-रोल चलाता काम ।
बना कर घोड़ा चाचा, ताया, दादा को खेला करते थे , अब तो खिलौनों से ही खेल होता तमाम
चूरन वाली गोली - टाफी खाने को ललचाते थे , अब तो घर पे चाकलेटों की रहती भरमार ।
लेती थी मां हर बात पे बलाएं , अब तो आया से उतरवा कर नज़र चलता है काम
कहां गया वो रंगीला बचपन, वो गुड्डे -गुड़ियों की शादी , वो झूठ-मूठ का झगड़ा तमाम ।
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