बेच कर बचपन , रह कर भूखा लाचारी में दर-दर ठोकरें खाता है
कभी सड़क पर कभी चौराहे एक निवाले की खातिर भूखा भटकता रहता है ।
धूल, कंकड़ ,मिट्टी से बनी रोटी भी इनको लगती प्यारी , जो भरे पेट वाले
गाड़ी - बंगला वाले व्यर्थ यूं फेंका करते हैं ।
सो जाते हैं भूखे पेट पर नींद कहां इन्हें आती है , पहले दिमाग , फिर जिस्म ,
फिर रिश्ते भी ये भूख खा जाती है , बच्चों का तो नामो-निशान तक मिटा जाती है ।
रोती है रूलाती है , छटपटाती है , तड़पाती है , होंठों को ये जलाती है ,
निशा कटती है आंखों में लिए नीर , दिन में तारे दिखाती है ।
मां भी क्या करें बेचारी निचोड़ कर सूखा तन भूखे बच्चे को चुसाती है
फिर बेशक वो खुद कफ़न ओढ़ कर सो जाती है ।
ना हिन्दू ,ना मुस्लिम ना कोई और धर्म में भूख सिखाती है बस चाहिए
एक टुकड़ा रोटी का , बार-बार भूख ये दोहराती है ।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.