भूख

ग़रीबी की मार भूख

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Prem Bajaj
Prem Bajaj 20 Dec, 2020 | 1 min read

बेच कर बचपन , रह कर भूखा लाचारी में दर-दर ठोकरें खाता है

कभी सड़क पर कभी चौराहे एक निवाले की खातिर भूखा भटकता रहता है ।

धूल, कंकड़ ,मिट्टी से बनी रोटी भी इनको लगती प्यारी , जो भरे पेट वाले

गाड़ी - बंगला वाले व्यर्थ यूं फेंका करते हैं ।


सो जाते हैं भूखे पेट पर नींद कहां इन्हें आती है , पहले दिमाग , फिर जिस्म ,

फिर रिश्ते भी ये भूख खा जाती है , बच्चों का तो नामो-निशान तक मिटा जाती है ।

रोती है  रूलाती है , छटपटाती है , तड़पाती है , होंठों को ये जलाती है ,

 निशा कटती है आंखों में लिए नीर , दिन में तारे दिखाती है ।


मां भी क्या करें बेचारी निचोड़ कर सूखा तन भूखे बच्चे को चुसाती है

फिर बेशक वो खुद कफ़न ओढ़ कर सो जाती है ।

ना हिन्दू ,ना मुस्लिम ना कोई और धर्म में भूख सिखाती है बस चाहिए

एक टुकड़ा रोटी का , बार-बार भूख ये दोहराती है ‌ ।


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Prem Bajaj

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