आया याद वो बचपन का ज़माना , पिता की डांट, मां का लोरी सुनाना ।
वो छोटी-छोटी बातों पे पल में रूठना और पल में मान जाना ।
वो दौड़ कर तितली पकड़ना , वो राधा बन कान्हा को ढुंढना ।
वो दोस्तों संग मस्ती करना , स्कूल ना जाने के बहाने ढुंढना ।
वो बारिश में भीगना उस पर बीमार हो छींकना और डांट खाना ।
वो छुक - छुक रेल बनाना , ऊंचे-ऊंचे सपनों की बातें करना ।
यही तो था असली ज़िन्दगी का ख़ज़ाना ।
क्यों नहीं होता सबका एक सा बचपन का ज़माना , कुछ होते हैं ऐसे
जिनका बचपन भी होता बदनसीब है , ना पिता की डांट ,ना मां का
दुलार नसीब है , क्या कहें ऐसे बचपन को क्यों कुछ बच्चों का फूटा नसीब है ।
दिन भर करते मज़दूरी , रात को सड़क पर सो जाते , ऐसे बच्चे स्कूलों में
भला कहां पड़ पाते ।
कहां भला नसीब उन्हें खिलौनों से खेलना , कहां मिल पाता उन्हें सुकून ,
बिमारी में भी काम का बोझ पड़ता झेलना ।
कोई तो इन पर करो कर्म , छोटे-छोटे बच्चों को बना कर मजदूर ना छीनो
इन बदनसीबों का बचपन ।
भाई से कभी करना झगड़ा , कभी उस पर प्यार लुटाना ।
वो दुल्हा - दुल्हन का खेल खेलना , गूड़ियों की शादी रचाना ।
वो छोटे - छोटे बर्तनों में खाना पकाना , झूठ-मूठ सबको खिलाना ।
कभी टीचर , कभी मम्मी , कभी पापा बन भाई को डांट लगाना ।
काश कोई लौटा दे मेरे बचपन का ज़माना ......
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