चल परदेशी घर अपने लौट के जाना है ये शहर तो है रैन बसेरा
यहां कोई किसी को नहीं पहचानता , कौन है तेरा कौन मेरा ।
गांव पड़ी है ज़मीन बंजर मेरी ना था उसपे कुछ पनप रहा
सोचा शहर में जाएंगे कुछ कमाएंगे कोई वहां भी बनेगा मेरा ।
लम्बी सड़कें , लम्बी - लम्बी गाड़ियां , बड़े - बड़े घर हैं यहा
उन बड़े घरों के लोगों के दिलों में नहीं बना पाया घर मैं मेरा ।
पैसे के अमीर लोग दिलों के ग़रीब हैं नाम के रिश्ते बनाते हैं
असली रिश्तेदारों से काटते कन्नी कोई नहीं किसी का चचेरा ममेरा ।
चल मुसाफिर उस मिट्टी में , उसी पे हाथ आजमाएंगे मेहनत की खाएंगे
क्या करूं इस शहरी ज़िंदगी का ,जहां कोई नहीं अपना ये है रैन बसेरा ।
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