कृषक और किसानी

कृषक और उनकी किसानी

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Prem Bajaj
Prem Bajaj 01 Dec, 2020 | 1 min read

चीर के धरती के सीने को नए -नए अंकुर है उगाता ,

करके मेहनत अन्न उगाता , भूख वो जन-जन की मिटाता ।

कड़कती धूप हो या ठिठुरती सर्दी या हो काली घटा से बरसती बरखा ,

मुंह में निवाला ना तन पे दुशाला ,जेठ महीना ,

 पूस की रात , इनके लिए एक जैसे हालात ।


पायल , बिंदिया , कंगना , हार ऐसा नहीं उसे रास ना आता ,

उसको भी सजना - संवरना भाता , उंडेल कर अपने सपनों को खेत में ,

देख कर खुशी चेहरे पे बच्चों के , खुशी से उसका मन मयूर है अकुलाता ।

आलस कभी ना मन में रहता , बिन बोले चुपचाप ,

सूखा, बाढ़ , कुदरत का कहर है सहता रहता ।


सूरज उगने से पहले उठता , सबको निवाला देने वाला ,

कभी - कहीं खुद बिन निवाला रह जाता ।

जो सबको अन्न खिलाता , वो खुद क्यों भूखा रह जाता ?

कोई तो समझें उसकी व्यथा , वरना एक

दिन बन जाएगी किसान की किसानी एक कथा ‌ ।

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Prem Bajaj

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