सुनहरी

संतोष परम धर्म

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Pallavi verma
Pallavi verma 28 Jan, 2020 | 1 min read

शीर्षक-: सुनहरी

बेर बीनते -बेते सुनहरी जंगल में काफ़ी अंदर चली गई थी, आखिरकार बेर बेचकर, और मरियल गाय का चुल्लू भर दूध बेचकर ही अपना और अपनी माँ का पेट पालती है।

तभी अचानक पैर में कांटा चुभा तो चेतना आई कि, लौटने की बेला आ गई।गाय भी अच्छी मात्रा मे घास खा चुकी थी। आराम से बैठकर जुगाली कर रही थी। उन्होंने गाय को पुकारा और वापस जा रहे थे।

रास्ते में सड़क निर्माण कार्य चल रहा था इंजीनियर (दिवाकर) निर्माण कार्य का अवलोकन कर रहे थे, सुनहरी को देख उसे रोका और कुछ बेर चखने के लिए पूछा। सुनहरी ने सहर्ष उन्हें और बाकी ढेरों मज़ूरों को सारे मीठे बेर खाने को दे दिए।

दिवाकर ने आश्चर्य चकित हो कहा, तुझे क्या लगता है? सभी मजदूर तुझे पैसे देंगे इतनी कठिनाई से तूने बेर जमा किया, बेचने के लिए और सबको यूं ही मुफ्त में दे दिया।

सुनहरी बोली, साहब! मुझसे ज़्यादा तुम सबको ज़रूरत थी इनकी। आप सबकी भूख मिटेगी

मैंने और माँ ने तो बाजरे की रोटी खा ली है। और यह सबसे अच्छा माता-पिता के पेट में घास है।

अपने हाथ में लालटेन पकड़े इंजीनियर दिवाकर को गरीब सुनहरी की सरलता, सादगी, और अतुलनीय सन्तोष से तंग दमकती सूरत किसी देवी से कम नहीं लगी।

जो संतोष के साथ उसका व्यक्तित्व मे चमक रहा था, वह शायद कोई सुस्स्म भोजन, जमीन जायदाद को भोग कर भी बहुत गया था।

उसने पूछा कि क्या है?

सुनहरी बोली दसवीं! लेकिन परीक्षा देने वाले शहर नहीं पाए गए।

सुनहरी, गाय के बारे में अपने घर लौट रही थी।

इंजीनियर दिवाकर ने माँ को फ़ोन लगा कर कहा माँ! तू दी के बारे में चारों ओर, अपनी बहू मत ढूंढ मैं मैंने लालटेन लेकर ... तेरे लिए काबिल बहू ढूंढ ली है।

पल्लवी वर्मा

सूत्रबद्ध, मौलिक, अप्रकाशित

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Pallavi verma

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