एक भयंकर तूफानी रात

एक तूफानी रात में माँ और बेटे कनाॅडा से अमरीका में गाड़ी ड्राइव करके जा रहे थे, फिर उनको एक लड़की मिलती हि, जिसकी गाड़ी सड़क किनारे खराब हो गई थी। फिर क्या होता है?

Originally published in hi
Reactions 0
552
Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 11 Dec, 2020 | 1 min read

एक हफ्ते के लिए बेटे के साथ माॅन्ट्रियाल आई थी। अनिरुद्ध के स्कूल में एक काॅम्पीटीशन था जिसका फाइनल यहाँ पर होना था। पति रवि भी आने वाले थे साथ में, परंतु ऐन वक्त पर ऑफिस का एक प्रोजेक्ट आन पड़ा था। जिसके लिए उन्हें एक हफ्ते के लिए रशिया चले जाना पड़ा था। अतः मजबूरन, मुझे ही, ऑफिस से छुट्टी लेकर कनेक्टिकट से ड्राइव करके अनिरुद्ध को लेकर यहाँ आना पड़ गया था।


मैं शहर के अंदर ड्राइव तो कर लेती हूँ, ऑफिस जो जाना होता है, रोज़। वैसे अमरीका में ड्राइविंग के ज्ञान के बिना आप बिलकुल अपाहिज़ से महसूस करेंगे। लेकिन लांग- ड्राइव पर अकसर रवि ही चलाया करते हैं।


माॅन्ट्रियाल आते समय बेटे अनिरुद्ध के सहपाठी सैम्यूएल और उसकी मामा लेज्ली भी साथ आई थी। सैम भी उसकी टीम में था। लेज्ली के साथ होने से फायदा यह हुआ था कि उसने और हमने आधा-आधा ड्राइव कर लिया था। इसलिए बातों -बातों में सफर का कुछ पता न चला था।


अक्टूबर का महीना अंत होने को था। चारों तरफ बड़ी ही मनोरम हेमंत की ॠतु छाई हुई है ! यहाँ के लोग इसे फाॅल कहा करते हैं। शीत-ऋतु के आगमन से पहले, वृक्षों में से पत्ते, झड़ जाने से पहले सुंदर लाल वर्ण धारण कर लेते है। कहीं लाल, कहीं पीले और कहीं नारंगी तो कहीं भूरे--- --सारे पेड़ इस समय इन्हीं रंगों से सजे हुए है।


लाल रंग की ही अधिकता रहती है यद्यपि इनमें। दूर से देख कर ऐसा लगता है कि जैसे वृक्षों ने कोई लाल चुनर ओढ़ रखी हो। कनाॅडा को "मैपल पत्तों का देश" कहा जाता है। अतः आपको इस समय जगह- जगह सुर्ख लाल पत्ते वाले छोटे- बड़े मैपल के पेड़ों के दर्शन अनायास ही हो जाएंगे।


काॅम्पीटशन के बाद हम दोनों माँ- बेटों ने यह तय किया कि रोज- रोज कनाॅडा तो आना नहीं होता है। फिर रवि भी इन दिनों घर पर हैं नहीं, तो क्यों न थोड़ा मन्ट्रियाल घूम लिया जाए? वैसे भी कल शनिवार है और सोमवार से पहले हमें ऑफिस और स्कूल ज्वायन नहीं करना है। तो वीकेन्ड को हम दोनों का ही घर लौट जाने का मन नहीं किया। अतएव हमने होटल में दो रात के लिए अपनी बुकिंग को एक्सटेण्ड करा लिया।


हमने लेज्ली और सैम को भी इन्वाइट किया था परंतु उनको घर जाने की जल्दी थी। इसलिए अपने लिए एक गाड़ी का बन्दोबस्त करके प्रतियोगिता समापन के दिन, शुक्रवार शाम को ही वे दोनों माॅन्ट्रियाल से निकल गए थे।


शनिवार दिन का मौसम बड़ा सुहावना था। सुन्दर धूप छिटकी हुई थी। हालाँकि तापमान अब भी - 2° सेल्सियस था। लोग कह रहे थे कि जल्द ही बर्फ-बारी शुरु होनेवाली है। परंतु हमें इससे क्या? हमें तो अगले ही दिन यहाँ से निकल जाना था।


मौसम अच्छा देखकर हम दिन भर शहर घूमते रहे। माॅन्ट्रीयाल म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट, नाट्रा डेमस चर्च, बोटानिकल गार्डन और बायोडोम देखने के बाद हम दोनों थक गए थे। साथ ही जमकर भूख भी लगने लगी थी। एक फ्रेंच रेस्टोरेन्ट में जाकर हमने तब लंच का ऑर्डर दिया। लंच करने के बाद हम माँ- बेटे ने घूम- घूमकर काफी शाॅपिंग भी करी।


लेकिन शाम घिरते ही मौसम खराब होने लग गया था। इसलिए हम जल्दी ही होटल में लौट आए थे। कल भोर- भोर जो निकलना था। करीब आठ - नौ घंटे की लंबी ड्राइव थी। इसलिए डिनर करके हम जल्दी-से सो गए।


सुबह होटल से मैं जल्दी निकल जाना चाहती थी क्योंकि सुरक्षा दृष्टि से देर रात होने से पहले घर पहुँच जाना जरूरी था। आजकल सरदियों में चार बजते ही अंधेरा छाने लग जाया करता है।


परंतु न जाने क्यूँ आज सुबह से सब कुछ उल्टा- पुल्टा चल रहा था। सबसे पहले तो बड़ी देर से मेरी आँखें खुली! सिर उठाकर फोन की घड़ी देखी तो दस बज रहे थे। तपाक् से विस्तर पर उठ बैठी। सोचा था कि सात- आठ बजे तक होटल से निकल जाऊँगी! परंतु यहीं पर दस बज चुके थे!!


" ओह, शीट्! अभी ब्रेकफास्ट करके निकलते- निकलते साढ़े- ग्यारह- बारह तो आराम से बज जाएंगे।" उठते के साथ ही मेरी झुंझलाहट आरंभ हो चुकी थी।


अनिरुद्ध मेरे से पहले जग चुका था। वह तैयार होकर खिड़की के पास खड़ा बाहर कुछ देख रहा था। हमारा होटल 402 नंबर हाइवे के पास था। शायद गाड़ियाँ देख रहा होगा! ऐसा सोचकर मैं पलंग से उतरी ही थी कि आहट सुनकर अनिरुद्ध ने इधर मुँह फेरकर देखा और खुशी से चहककर बोला,


" मम्मा देखो, स्नो फ्लेक्स।"


उसकी बात सुनकर मैं भी खिड़की के पास गई-


" ओह, माॅय गाॅड! " पूरी कायनात् बर्फ की चादर ओढ़े खड़ी थी। वृक्ष सारे सफेद, सारी बिल्डिंगे सफेद, पार्किंग लाॅट पर रखी सभी गाड़ियाँ तक बर्फ से धवली हो चुकी थी।


"मम्मा, लगता है रात भर काफी बर्फबारी हुई है यहाँ !!"


" हूँ। "


अभी भी रुई के टुकड़ों के समान बर्फ के गोले आसमान से गिरे जा रहे थे।


टीवी ऑन किया तो उसमें दिन भर मौसम खराब रहने का फोरकाॅस्ट आ रहा था। न्यूज रिडर मौसम की ऐसी खराब हालत में बिला-वजह घर से बाहर न निकलने की हिदायतें दे रही थी।


" धत्त तरी की!! कल ही निकल जाते तो अच्छा था। नाहक, शहर घूमने के लिए एक दिन और रुक गए!! बड़ी बेवकूफी की!"


मन ही मन फिर से झुंझलाने लगी थी मैं कि तभी रवि का मास्को से फोन आया,


" अरे अनिता, तुम लोग अभी भी होटल पर हो? टीवी पर बता रहे है कि आज माॅन्ट्रीयाल का मौसम बहुत खराब रहेगा। जल्दी से निकल पड़ो। और चार बजे से पहले बाॅर्डर पार कर जाओ।"


" हाँ, ठीक है, रवि! तुरंत निकलते हैं।"


जल्दी- जल्दी हाथ चलाकर भी होटल से चेक- आउट करने में पूरा एक घंटा लग गया। हमें अमेरिका जाना है सुनकर वे लोग हमारे सफर के लिए शुभकामनाएँ देने लगे। पोर्टर ने अनिरुद्ध को बुलाकर कहा,


" संभलकर जाना, बेटा! मौसम आज बहुत ही खराब है। शांत रहना, धीरज धरना और प्रार्थना करते रहना।"


सचमुच आज का मौसम बड़ा भयंकर था। होटल छोड़ने के आधे घंटे बाद ही अंधेरा छाने लग गया था। तेज- तेज बर्फ के गोले गिर रहे थे। बर्फ के गोले गाड़ी की बिलकुल समांतराल रेखा में गिरे जा रहे थे, मानो वे पंक्तिबद्ध होकर हमसे आगे- आगे चलना चाहते हो।


एक हाथ की दूरी पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। आगे सड़क तय करने के लिए गाड़ी की हेडलाइट का ही एकमात्र भरोसा था और दिशा निर्णय के लिए जी पी एस के अलावा और कोई चारा न था। आगे सड़क है अथवा खाई, कुछ भी खाली आँखों से देखकर पता नहीं चल पा रहा था। जी पी एस जहाँ हमें मुड़ने को कहता था हम वहीं मुड़ जाते थे।


तकरीबन तीन घंटा ऐसी मौसम में ड्राइव करने के बाद हम चाय के लिए एक जगह पर रुके। मौसम अब भी काफी खराब था। घर कब पहुँच पाएँगे यह मालूम न था। जीपीएस अमरीका का बाॅर्डर अब भी ढाई घंटे की दूरी पर दिखा रहा था। अगर रास्ता खराब हुआ तो इससे भी ज्यादा समय लग सकता है। इसलिए राह के लिए हमने कुछ स्नैक्स और पानी की बोतलें खरीद ली और कुछ शक्तिवर्धक ड्रिंक्स और न्यूट्रिशन बार भी पैक करा लिए।


दो घंटे चलने के बाद एक जगह पर पहुँचकर जीपीएस सिग्नल ने काम करना बंद कर दिया । अब तक चारों तरफ घुप्प अंधेरा था। हम राजमार्ग पर सीधे- सीधे चले जा रहे थे। अंधेरा इस तरह था कि आसपास कुछ भी ढंग से नहीं दिख रहा था। अनिरुद्ध डर के मारे चुप हो गया था। मैंने तब निश्चय किया कि इस अंधेरी रात में आगे बढ़ने का कोई मतलब नहीं है। कहीं पर रातभर के लिए रुक कर जाना बेहतर रहेगा।


" अनि बेटा, देखो जरा तो, कहीं आसपास कोई होटल या रेस्ट हाउस तो नहीं है?" मैंने सामने की सड़क से नज़र हटाए बिना ही उससे पूछा।


" कैसे देखूँ, मम्मा, नेटवर्क नहीं है।"


" कुछ देर पहले तो तुम कह रहे थे कि पास में कोई रेस्ट हाउस है ? याद है कुछ, वह कितनी दूरी पर था? रोड साइन भी तो नहीं दिख रहा है कोई।"


" अरे , नेटवर्क वापस आ गया। हाँ मम्मा, आधे घंटे की ड्राइव पर बाईं तरफ एक रेस्ट हाउस का साइन है--- मम्मा आगे देखना!!-- संभलकर!! वाॅच आउट ( देखना, संभलना)!!


अनिरुद्ध की चीख सुनकर मैंने झटपट ब्रेक लगा दी। ज़रा सी देर के लिए मैंने अपना सिर अनि की ओर घुमाया क्या था कि यह मुसीबत गले पड़ गई थी।


गाड़ी का इंजन एक अजीब सा आवाज़ निकालकल शांत हो गया। हैडलाइन के सामने सूनसान सड़क पर एक सतरह- अठारह वर्ष की लड़की लिफ्ट के लिए हाथ दिखा रही थी। और वह अभी- अभी मेरी गाड़ी के नीचे आते- आते बची थी!!


"हे ईश्वर!"


"अरे, ऐसी तूफानी रात में यह लड़की कहाँ से आई?"


मैंने शीशा नीचे किया तो वह लड़की मेरे करीब आकर बोली। उसे सामने के रेस्ट हाउस तक जाना है, जो यहाँ से मुश्किल से दस मिनट की ड्राइव पर है। अगर लिफ्ट मिल जाए तो वह हमेशा के लिए शुक्रगुज़ार रहेगी।


मैंने उससे पूछा कि उसके साथ कौन है?


उत्तर में उसने कहा कि वह अकेली ही है। उस रेस्ट- हाउस के केयर-टेकर की बेटी है। वहीं रहती है। उसने अपना नाम बताया-- लिंडा।


एक पल रुककर मैं सोचने लगी-- क्या जाने यह लड़की सच बोल रही है अथवा नहीं? कहीं गैंगस्टर हुई तो? फिर भी, इस तूफानी रात में एक टीन लड़की को अकेला छोड़ देना दिल को सही नहीं लगा। रेस्ट- हाउस का नाम सुनकर एक आशा भी जगी कि शायद वहाँ रात गुज़ारने को मिल जाए! और यही सब सोचकर मैंने उसे गाड़ी में बिठा लिया।


लिंडा ही राह दिखाती हुई रेस्ट हाउस ले चली। जीपीएस सिस्टेम फिर से डाउन हो चुका था।


लिंडा काफी मिलनसार लड़की निकली। रास्ते में उससे काफी बातें हुई। उसने बताया कि वह सुबह सहेली के घर पढ़ाई करने गई थी। परंतु वापस आते समय मार्ग में उसकी गाड़ी बिगड़ गई। इसलिए उसे सड़क पर ही छोड़कर वह लिफ्ट माँगने के लिए आ खड़ी हुई थी। थोड़ी दूर पर सड़क के किनारे खड़ी अपनी गाड़ी को उसने ऊंगली से दिखाया। इस बार उस पर से हमारा सारा शक दूर हो गया।


लिंडा ने हमसे पूछा कि हमको किस तरफ जाना है। अमरीका सुनकर वह बोली, "आज वहाँ न जाएँ। रात को मौसम का और बिगड़ने का अंदेशा है। "


सच ही कह रही थी वह। अब तक बिजलियाँ भी कड़कने लग गई थी। बर्फ की बारिश तो सुबह से लगातार हुई जा रही थी। रात को और भयंकर तूफान का अंदेशा मुझे भी अब कुछ-कुछ होने लगा था।


अब हम रेस्ट हाउस पहुँच चुके थे। रेस्ट हाउस में एक धुँधली- सी रौशनी जल रही थी। चारों ओर घुप्प अंधेरा छाया हुआ था। दूर से यह रेस्ट हाउस नज़र भी न आता था। शुक्र है कि हमें लिंडा मिल गई थी, वर्ना इस रेस्ट हाउस को ढूँढ पाना नामुमकिन था।


लिंडा ने अपने पापा मिस्टर स्मिथ से हमारा परिचय करवाया। पिता और पुत्री दोनों ने लिफ्ट देने के लिए बहुत बार हमें धन्यवाद दिया और एक रात के लिए उनके इस रेस्ट हाउस का अतिथि बनने का अनुरोध किया।


हम और क्या करते? आगे जाना मुश्किल था। इसलिए रात को वहीं रुकने का फैसला ले लिया।


रेस्ट हाउस पुराने जमाने का था। रख-रखाव के अभाव में थोड़ा टूट-फूट गया था। और इस समय पूरी तरह से खाली था। हमारे अलावा कोई दूसरा गेस्ट वहाँ पर न था।

पूछने पर, मिस्टर स्मिथ ने बताया कि गर्मियों के समय काफी लोग इधर आते हैं परंतु इस समय यहाँ कोई बमुश्किल ही मिल पाता है।


बहरहाल, हम काफी थके हुए थे। इसलिए मिस्टर स्मिथ द्वारा लाया हुआ चिकन सूप और सैन्ड्विच खाकर बेड पर लुढ़क गए। बेड का गद्दा बड़ा ही नरम था। हालांकि इस कमरे में फर्नीचर नाममात्र को ही था। एक डबल बेड, कोने में एक क्लोसेट, एकमात्र चेयर और एक छोटा सा तिपाया - कुल मिलाकर इतना ही।


" मम्मा लगता है, यह कमरा काफी समय से बंद पड़ा हुआ था। देखो, उस कुर्सी पर कितनी धूल जमी हुई है।"


लेटे-लेटे अनिरुद्ध ने मुझसे कहा। नींद से मेरी आँखें तब तक बंद होने लगी थी। किसी तरह मैंने उससे कहा,


" बेटा, सो जा। सिर्फ रात भर का ही मामला है। भोर होते ही निकल लेंगे।"


सुबह जब आँखे खुली तो मौसम खुल चुका था। सुंदर धूप निकल आई थी। हालाँकि तापमान अब भी माइनस पर ही था। बाहर का नज़ारा देखते ही मन खुशी से झूम उठा। यह रेस्ट हाउस घने जंगलों के बीच में अवस्थित था।चारों तरफ प्रकृति अपनी सुंदर छटा बिखेरी हुई थी।


नहा-धोकर,साथ लाए हुए स्नैक्स से ब्रेकफास्ट करके जब हम रवाना होने को तैयार हुए तो पिता- पुत्री में से किसी एक का भी हमें दर्शन न मिला। जीपीएस अब भी नदारद था। हम जल्दी ही इस जंगल से बाहर निकल जाना चाहते थे।


हमने उन दोनों को काफी ढूँढा। नाम लेकर भी पुकारा उनको कई बार। पर वे कहीं न मिले!! इधर हमें देर हो रही थी। सो, हमने उन दोनों के लिए एक थैन्क्यू नोट लिखा और गाड़ी लेकर निकल पड़े।


परंतु किस तरफ जाना था यह पता नहीं चल पा रहा था। चारों तरफ घना जंगल था। रात को तो लिंडा मार्ग बताकर ले आई थी। आधे घंटे के बाद मुख्य सड़क पर एक छोटा सा गेस- स्टेशन( पेट्रोल पंप) दिखा। गाड़ी में गैस कम था। सो वहाँ रुककर गैस भरने के बाद जब हमने दुकानदार को पैसा थमाते हुए दिशा-निर्देश पूछा तो दुकानदार बातों- बातों में पूछ बैठा था कि हम यहाँ कहाँ आए थे?


"रेस्ट हाउस" सुनकर वह पूरे एक मिनट तक हमें देखता रहा!!


फिर हमारे हाथों में चैंज के पैसे देता हुआ बोला,


" दैट हाउस इस हौंटेड!" ( वह भूतिया बंगला है।)


वर्षों बाद आज भी जब उस रात को मैं याद करती हूँ तो मेरे सारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कैसे उस लड़की (या भूत??) ने उस भयंकर तूफानी रात को हमारी जान बचाई थी!! हमें रातभर के लिए शरण दिलाई थी!! वह सब एक सपना-सा लगता है।


भूत- प्रेत पर विश्वास न होते हुए भी उस घटना को मैं आजीवन भूल नहीं पाऊंगी!

0 likes

Published By

Moumita Bagchi

moumitabagchi

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Charu Chauhan · 3 years ago last edited 3 years ago

    बहुत बढ़िया

  • Moumita Bagchi · 3 years ago last edited 3 years ago

    Bahut shukriya, Charu ji 🙏

Please Login or Create a free account to comment.