अनब्याही बहू

एक अनोखी प्रेम कथा

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Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 12 Sep, 2021 | 1 min read

अमृता जी का कई दिन से बीपी लो चल रहा था। फिर भी सुबह-सुबह वे वाॅक पर गईं। फिर जो होना था, वही हुआ। पार्क का चक्कर लगाते-लगाते वे खुद भी चक्कर खा कर गिर पड़ीं। आसपास के कई लोग दौड़ते हुए आए।


अमृता जी को यहाँ सब पहचानते थे। रोज सुबह वाॅक करने जो आती थीं। गिरिश जी के सेवानिवृत्ति के पश्चात जब उन दोनों ने भुवनेश्वर में सेटल होने का निर्णय लिया तो उस समय पुराने जान-पहचान वाले सब भुवनेश्वर से जा चुके थे। अमृता जी के हँसमुख स्वभाव और मिलनसार प्रवृत्ति के कारण वे जहाँ भी जातीं जल्दी लोगों के साथ घुल-मिल जाती थी। अतः यहाँ भी उन्हें जान-पहचान बनाने में अधिक देर न लगी थी।

उनके पति, गिरीश शथपति साहब का स्वभाव बिलकुल इनके विपरीत था। वे गंभीर और अंतर्मुखी स्वभाव के थे। और बिना प्रयोजन के कहीं आते-जाते नहीं थे। वे किसी बेहद बड़े ओहदे पर सरकारी मुलाजिम रह चुके थे। जिसके कारण भी वे सहज रूप से सबसे जुड़ नहीं पाते थे।


"अंटी जी, आपको ज्यादा चोट तो न आई? क्या अब आप खड़ी हो पाएंगी?" अत्यंत कोमल स्वर में किसी ने उनसे पूछा।


आँखे खोली तो अमृता जी थोड़ी देर तक उस लड़की को देखती ही रह गई। वह एक अत्यंत रूपवती स्त्री थी, जिसकी उम्र कोई पैंतिस साल के आसपास होगी, चिंतातुर आंखों से उन्हें देखे जा रही थी। उसके माथे पर दमकती गोल बिंदी और सिंदूर का हल्का-सा आभास अमृताजी बार- बार देखने लगी और उस स्त्री के व्यक्तित्व में एक ऐसा स्निग्ध आकर्षण था कि अधेर उम्र की अमृता जी भी थोड़ी देर के लिए अपनी वर्तमान अवस्था से विस्मृत हो गई थी।


अमृता जी के मन में एक क्षण के लिए एक अजीब-सी इच्छा जाग्रत हो उठी।

'' काश! मेरी बहू भी ऐसी होती। "

उनकी बहू लिंडा हालांकि बहुत अच्छी थी पर वैसी नहीं थी जैसी एक औसत भारतीय सास को आमतौर पर पसंद आया करती हैं।

पर ज्यादा सोच - विचार के लिए अवकाश न था।

पैरों पर आई मोच से होने वाले दर्द ने तुरंत ही उनको वर्तमान में लाकर पटक दिया था। वे किसी तरह उस स्त्री का सहारा लेकर खड़ी तो हुईं पर एक कदम भी आगे न बढ़ा पाई। इतनी देर में वह लड़की न जाने कहाँ से जल्दी से हल्दी और चूना गरम करके लाई और उनके पैरों में उसका लेप लगाने लगी।


फिर थोड़ी देर बाद, जब उनका दर्द हल्का सा कम हुआ तो उन्हें अपने स्कूटर के पीछे बैठालकर उनके घर तक छोड़ने आ गई।


इस अपरिचित स्त्री के उपकार से अमृता जी कृतज्ञता से अंदर तक भींग गई। और उसे एक चाय पीने के लिए अपपे घर पर आमंत्रित कर दिया। जिसे उस लड़की ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।


परंतु सुबह की चाय आज उस लड़की को ही बनाना पड़ा क्योंकि शथपति जी को तो किचन का कोई काम आता ही न था। इसके बाद चाय पीते-पीते धीरे- धीरे बातचित होने लगी और परिचय का एक रास्ता सुगम होने लगा।


उस लड़की ने अपने बारे में बताया कि उसका नाम मधुरा है और वह भुवनेश्वर में ही रहकर एक काॅलेज में पढ़ाती हैं। नाम की ही तरह उसकी आवाज भी अत्यंत मधुर थी।


अमृता जी ने भी इसके बाद मधुरा को अपने बच्चों के बारे में बताया। उनके दोनों बच्चे ( बेटा अमिताभ और उससे पांच साल छोटी बेटी नंदिनी) इंजीनियरिंग करने के बाद अमरीका में सेटल हो गए थे। उन्होंने वहाँ अमरीकनों के साथ ही घर बसा लिया जिससे कि उनको जल्दी वहाँ का नागरिकत्व भी उपलब्ध हो गया। उनके पोते और नवासी भी अपनी गोरी माँ और पिता की तरह ही गोरे हैं। जिनको भारत आना पसंद नहीं था।

अमृता जी का बड़ा मन करता है उन दोनों बच्चों के साथ मिलने का। अपने पोते ,नवासी के साथ खेलने का। यही सब बताते हुए अमृता जी का गला रुंध गया था।


फिर वे मधुरा को और एलबम दिखाने लगी। जब वे अमरीका गई थी गिरीश जी के साथ तब उन्होंने ये तस्वीरें ली थी। आज के डिजीटल युग में भी अमृता जी ने उन सभी तस्वीरों का प्रिंट निकाल कर एलबम में सजा रखा था। और जब भी उनकी याद आती तो ये एलबम के पन्ने खोलकर बैठ जातीं थी।

अपनी रौ में बीती बातों का पिटारा खोलते हुए अमृता जी ने गौर किया कि एलबम के पन्ने पलटते हुए न जाने क्यों मधुरा के हाथ एक दो बार काँप उठे थे।

"क्या बात है, बेटा?" उन्होंने पूछा।

"कुछ नहीं अंटीजी," उसकी आवाज़ एकबारगी डगमगाई थी। "मेरे अपनो की याद ताजा हो आई।" मधुरा ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा था।

जाते समय मधुरा ने उनसे पूछा, "अंटी जी क्या मैं आपको बउ ( ओडिया भाषा में माँ को कहते हैं) कह सकती हूं?" अमृता जी के अंदर का मातृत्व में एक हूक सी उठी थी। काफी दिनों से कोई भी उनको इस नाम से न पुकारा था!

"और क्या कभी-कभी आपसे मिलने यहाँ आ सकती हूं?" मधुरा आगे पूछ बैठी थी। अमृता जी मना क्यों करती भला? उन्होंने भी सहर्ष इसकी इजाजत दे दी थी। उन्हें भला क्या आपत्ति हो सकती थी? उनके पास पर्याप्त खाली समय था और लोगों से बातचित करना वे पसंद भी बहुत किया करती थी।

यह थी अमृता जी का मधुरा के साथ पहली मुलाकात! समय के साथ इन दो भिन्न उम्र की महिलाओ के बीच की दोस्ती गहरी होती चली गई। वे कोई नया पकवान बनाती तो मधुरा को अवश्य फोन कर बुलाती। मधुरा जब तक उसे चखकर अच्छा न कह दे उन्हें चैन न मिलता था। 

अमृता जी कभी-कभी मधुरा के साथ शाॅपिंग पर भी जाती थी। थियटर में कोई अच्छी फिल्म लगी होती तो मधुरा और उसकी बउ दोनों साथ-साथ देखने जाते। इसी तरह एक साल के अंदर दोनों स्त्रियाँ एक-दूसरे के इतने करीब आ गई कि मधुरा के काॅलेज में जब छुट्टी होती तो वह बउ-बापा के साथ आकर सारा दिन बीता जाया करती थी। यहाँ तक कि उनके बच्चों का फोन आता तो कभी-कभी बउ के व्यस्त होने पर मधुरा फोन रिसीव भी कर लेती थी और उनके लिए मेसैज लिखकर रख देती।

अमृता जी के मन में अपने बच्चों से दूर होने की जो शिकायत थी वह मधुरा के सान्निध्य में अब धीरे-धीरे कम होने लगी थी। आजकल उनका खालीपन काफी हद तक भरने लगा था! मधुरा एक ओर उनकी बेटी जैसी थी तो दूसरी ओर उनकी बहू की जिम्मेदारियाँ भी निभा लेती थी।

मधुरा का भी भुवनेश्वर में अपना कोई न था। इसलिए उसे भी बउ और बापा से गहरा आत्मीय लगाव हो चुका था।

मधुरा एक मराठी मुलगी थी। परंतु कुछ ही समय के अंदर ही उसने बहुत अच्छी ओडिया सीख लिया था। और बउ बापा के साथ धारा प्रवाह ओडिया में बोलने लगी थी।

इसका श्रेय वह अपनी बऊ को दिया करती थी। वह उन दोनों का भी बड़ा ही ख्याल रखती थी। बापा, जो कम बोलते थे, वे भी अब मधुरा से खुल कर बातें कर लिया करते थे। कुछ तो बात थी इस मधुरा में स्पेशल कि जो उसने उन लोगों के दिल को जल्दी ही जीतने में कामयाब हो गई थी। उसके सहज अपनापन के जरिए वह किसी भी उम्र के व्यक्ति को अपना बना ले सकती थी।


शायद लंबे समय से छात्रों को पढ़ाते रहने के कारण मनोविज्ञान की वह इतनी अच्छी जानकार हो गई थी कि दूसरों के मन को आसानी से पढ़ लेती थी।


कुछ दिनों के बाद अमृता जी के बेटे अमिताभ का फोन आया "हैलो बउ, किमिति आछन्ति? ( कैसी हैं आप?)"

" मु भाला अछि। (मैं ठीक हूं बेटा)। बस तुम लोगों को देखने की बड़ी इच्छा हो रही है।"अमृता जी बोली।


" बउ ,आपकी यह इच्छा जल्दी ही पूरी होने वाली है। हम अगले महीने इंडिया आ रहे हैं। लिंडा, रोमित और मैं।"

अमिताभ ने फोन पर यह खुशखबरी दी। अमृता जी अपने बेटे और पोते से मिल पाने की इस खुशी को केवल अपने तक समेट नहीं पाई। तुरंत जाकर उन्होंने गिरिश जी को बताया।

जल्द ही मधुरा को भी इसकी खबर दे दी गई। अमृता जी फिर तैयारियों में जुट गई। मधुरा, हमेशा की तरह ही उनका हाथ बंटाने समय पर पहुंच जाया करती थी। अमृता जी की दिली इच्छा थी कि हालांकि अमिताभ और लिंडा की शादी ईसाई रीति के अनुसार अमरीका में हुई थी, अतः इस बार जब वे स्वदेश आएंगे तो हिंदू तरीके से वे उनकी दुबारा शादी करवाएंगी।

आखिर उनके भी कुछ अरमान थे अपने इकलौते बेटे की शादी को लेकर।! क्या हुआ जो उनका पोता भी साथ आ रहा है। विदेश में तो बच्चे अकसर माॅ-बाप का व्याह होते देखते हैं। फिर नाते-रिश्तेदारों को भी तो बहू दिखाना था!

नियत दिन, सही समय पर अमिताभ, लिंडा और पोते रोमित को एयरपोर्ट लेने अमृता जी और गिरिश जी पहुंच गए। अमृता जी उन्हें देखकर फूले नहीं समा रही थी। घर पहुंचकर उन्होंने मोहल्ले भर को बुलाकर अपने बेटे और उसकी मेम बहू से मिलवाया। पोते का साथ पाकर वे तो छोटी बच्ची की तरह चहकने लगी थी।

अचानक उन्हें याद आया कि मधुरा नहीं आई मिलने। उसका नम्बर मिलाया तो बार-बार स्वीच ऑफ आ रहा था। फिर अमृता जी काम-काज में वे इतना व्यस्त हो गई कि कुछ दिनों के लिए मधुरा को जैसे वे भूल सी गईं थी।

बेटे और बहू की शादी और उसके पश्चात रिसेप्शन पार्टी काफी शानदार रहा। रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था। बड़ी ही चहल पहल रही घर नर कुछ दिनों तक। इन सबके बीच हालांकि अमृता जी के मन में कई बार मधुरा की याद हो आई थी। मन उनका बरबस यही सोचता रहा--


" अगर वह होती तो सारे कामों को चुटकियों में निपटा देती। उसे भी इसी समय गायब होना था। लिंडा को तो घर के काम-काज कुछ आते ही नहीं थे। ऊपर से धूल-मिट्टी और गर्मी से उसे ऐसी एलर्जी थी कि डर के मारे अपने कमरे से भी नहीं निकलती थी।"

बहरहाल, किसी तरह सारा काम आखिर ठीक-ठाक निपट ही गया। आश्चर्य जनक रूप से गिरिश जी का भरपूर सहयोग उनको मिला था इस बार।

अपने तीस बरस के दाम्पत्य जीवन में उनको इस तरह आज तक कभी घरेलू कामों में हाथ बँटाते हुए किसी ने न देखा था। और इतनी बातें तो गिरिश जी ने अपनी पूरी जिन्दगी में भी कभी नहीं की होगी। मधुरा के कारण ही उनका यह काया-पलट संभव हो पाया था।

"मधुरा, मधुरा, मधुरा---जब से यहाँ आया हूँ आप दोनो सिर्फ उसी का नाम रट रहे हैं। आखिर कहाँ है आपकी यह मधुरा?" अमिताभ ने उत्सुकतावश पूछा।

"पता नहीं वह कहाँ रह गई।" उसकी बउ ने कहा।

"फोन स्वीच ऑफ आ रहा है बार-बार उसका। तेरे बापा जी गए थे उसके होस्टल। वहाँ भी नहीं है, आश्चर्य।"

"अरे,,,कोई जरूरी काम आन पड़ा होगा उसे। चिंता क्यों करती हो? इसी वजह से घर चली गई होगी।" बापा जी बोले।

कुछ समय के बाद अमिताभ और लिंडा अमरीका लौट गए।

पर मुश्किल से एक महीना भी नहीं बीता होगा कि एक दिन देर रात को अचानक उनकी बेटी नंदिनी का फोन आता है। वह फोन पर बुरी तरह से रो रही थी। यहाँ तक कि रोते हुए उसकी हिचकियाँ बंध गई थी।

"बउ, भाइना और भाउज का अक्सीडेंट हो गया। -----ऽऽऑ-- गाड़ी भाउज चला रही थी। एक ट्रक के नीचे---"

अपना वाक्य पूरा करने से पहले नंदिनी फिर से विलख-विलख कर रो पड़ी थी।

"वे दोनों अब इस दुनिया में नहीं है, बऊ। सुन रही हैं, आप?ऽऽ-

---भाइना की अंतिम इच्छा थी इसलिए उनकी बाॅडी को लेकर हम इंडिया आ रहे हैं।"

"भाउज की बाॅडी उनके भाई अपने साथ॰॰॰ नंदिनी कहती रही, पर बीच में ही अमृता जी बेहोश होकर जमीन पर गिर गई।

गिरिश जी उन्हें अस्पताल लेकर गए। नंदिनी को फोन करके उन्होंने सारी बातें जान ली। एक जोरदार धक्का उन्हें भी लगा था!

जिस उम्र में बेटों के कंधे पर चढ़कर शमशान जाने की तमन्ना हर एक बाप को होती है उसी उम्र में उनको बेटे को कंधा देना पड़ेगा। यह बहुत ही दुखद घटना थी।

यही सब सोच कर वे फफक कर रो पड़े।

सिर्फ एक महीना पहले जिस घर में शादी की शहनाई की मधुर ध्वनि गूंज रही थी आज उसी घर में मातम की काली छाया मंडरा रही थी।

जवान बेटे का लाश आंगन के बीचो बीच रखी हुई थी और दो जिन्दा लाशें उसी आंगन के एक कोने में कुर्सी पर बैठी सब कुछ ऐसे देख रहे थी मानों खुद के क्रिया-कर्म में शामिल होने के लिए आए हो।

इतना रो चुकी थी कि अब उन दो जोड़ी बूढ़ी आंखों में आंसू का एक कतरा भी न बचा था। सिर्फ दो पत्थर की मूर्ति की भांति वे वहाँ, उस स्थान पर मौजूद भर थे।

उनके बुढ़ापे का सहारा, उनकी सारी खुशियों को , न जाने किस पाप के कारण,,विधाता ने एक ही झटके में छिन लिया था।

नंदिनी और उसका पति राॅबर्ट सभी पड़ोसियों और रिश्तेदारों को सम्हाल रहे थे।

तभी अचानक भीड़ को चीरती हुई मधुरा अंदर आई और अमिताभ के शव के पास आकर खड़ी हो गई।

फिर सब कुछ भूल कर कि वहाँ कहाँ पर है---क्या कर रही है--- आसपास कौन है---- रोती हुई पछाड़ खाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी।

उसे इस समय देख कर ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके वर्षों का संयम और तपस्या का बांध आज टूट रहा हो।

आज मधुरा श्रृंगार रहित एक सफेद साड़ी पहने हुए थी जैसे कि अपने किसी निकट आत्मीय के मृत्यु-शोक में शामिल होने के लिए आई हो।

पता नहीं, कितनी देर तक वह अमिताभ के शव का पैर पकड़ कर यूँ निरव क्रंदन करती रही। फिर अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पाकर वह ज़रा रुकी।

पास से किसी ने अत्यंत मधुर आवाज में उसे पुकारा-

"बड़ी भाउज!!!"

मधुरा रोना भूलकर इस संबोधन पर चौककर पीछे मुड़कर देखी।

यह नंदिनी थी। उसने कहा,

"भाइना ने मृत्यु से पहले आपके बारे में सब कुछ बता दिया था। मुझे नहीं मालूम था कि आप इसी शहर में रहती हैं। आइए--- मेरे साथ--चलिए --उठिए!"

मधुरा उठ कर खड़ी हो गई। परंतु नंदिनी तब तक उससे लिपट कर फिर से रो पड़ीं थीं।

अमिताभ के क्रिया-कर्म सब मिट जाने के बाद नंदिनी ससम्मान मधुरा को अपने बउ और बापा के पास लेकर आती हैं और कहती हैं---

" बउ---इनका नाम मधुरा नहीं हैं--- इनका असली नाम शुभांगी देशपांडे हैं।"

"भाइना और ये  मधुरा बंगलौर में एक ही इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ा करते थे। इन दोनों का प्रेम कैम्पस में बहुत मशहूर था। भाइना ने एक बार भावनाओं में बहकर इन्हें एक मंदिर में ले जाकर इनके गले में माला पहना दी थी। और इनकी मांग भी भरी थी।"

"उस समय भाइना का लिगल मैरिज की उम्र नहीं हुई थी इसलिए आगे चलकर इनसे शादी करने का वादा भी उन्होंने किया था।"

" परंतु इंजीनियर बनने के बाद भाइना विदेश चले गए और शुभांगी को पूरी तरह से भूल गए! वहाँ जल्दी ग्रीन कार्ड पाने के चक्कर में उन्होंने अपने कॅलिग लिंडा से शादी कर ली। "

"पर भाइना ने अपने अंतिम समय में मुझे बुला कर यह सब कुछ कहा और उन्होंने मुझसे यह विनती की कि शुभांगी को ढूंढकर उनके साथ किए गए सभी अपराधों के लिए उनकी ओर से मैं क्षमा मांग लू।"

फिर शुभांगी के पास जाकर हाथ जोड़कर नंदिनी बोली, " भाइना की गलती माफी के लायक तो नहीं है, पर जानती हूँ कि आपका दिल बहुत बड़ा है।"

"यह क्या पागलों की भाँति कहे जा रही है?" अमृता जी ने शुभांगी को एक नजर देखते हुए नंदिनी से पूछा।

"इसने तो हमें अपना नाम मधुरा बताया था??।"

"बउ मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है। आगे सुनिए।" एक लंबी साॅस खींचकर नंदिनी फिर आगे की कहानी सुनाने लगी।

"शुभांगी, अपने दोस्तों के माध्यम से भाइना का पूरा समाचार रखती थी। जिस दिन उसे भाइना की शादी की खबर मिली वह पूरी तरह से टूट गई थी। उसने अपनी मल्टीनैशनल कंपनी का जाॅब छोड़ दिया।

इसके बाद दुःख से वे फिर डिप्रेशन में चली गई थी। एक साल तक किसी रिहैब में भी ये रह चुकी है। फिर जब से थोड़ी ठीक हुई तो उन्होंने भुवनेश्वर इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ाने का ऑफर स्वीकार कर लिया।

उन्हें मालूम था कि आप दोनों यहाँ पर अकेले रहते हो। इसलिए नाम बदलकर ये आपके पास आती रहीं और आप दोनों की देख भाल करती थी।"

अवरुद्ध गले से नंदिनी आगे बोली--

" हम दोनों भाई- बहन तो बड़े स्वार्थी निकले थे। देश छोड़ कर बुढापे में आप दोनों को छोड़ कर भाग गए थे।

परंतु जो काम भाइना और मैं कभी कर न पाए वही काम भाउज ने कर दिखाया।"

यह कहते हुए नंदिनी फिर सब कुछ याद करके रो पड़ी।

शुभांगी ने तब आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया। और दोनों एक-दूसरे से लिपट कर देर तक रोने लगी।

कुछ देर बाद गिरिश जी आगे आए। शुभांगी के सिर पर उन्होंने अपना हाथ रखा और उसे ढेरों आशीर्वाद दिया।

अमृता जी शुभांगी के इस त्याग और तपस्या के आगे विह्वल होकर नतमस्तक सी हो गई। 

उन्हें मधुरा की पिछली सारी बातें एक- एक कर याद आने लगी।

वे आश्चर्यचकित थीं कि अमिताभ द्वारा इतना प्रताड़ित होकर भी कैसे इस लड़की ने उसके परिवार की सेवा की।

किस तरह प्रतिदान की रंचभर भी आशा न रखते हुए निःस्वार्थ भाव से वह इनका भला करती रही। इनके खालीपन और मायूसी को अपनी खुशी और ज़िन्दादिली से भरती रही।

उन्हें अचानक एलबम पकड़े हुए मधुरा की ऊँगलियों के काँप उठने की बात याद हो आई! अमृता जी उठ कर खड़ी हुई।

फिर तनिक आगे बढ़ीं और शुभांगी का हाथ पकड़कर रूंधे हुए स्वर में बोली -

"बेटी तो मैं तुझे पहले ही बना चुकी हूँ---- क्या अब बहू बनकर मेरी पास रहेगी?"

" तुझे बेटा तो अब लौटा कर न दे सकूंगी। पर उसके बेटे, अपने पोते को तुझे सौंपती हूं।"

मधुरा ने पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और पास खड़े रोमित को अपनी गोदी में उठा लिया। आज उसका सपना एक तरह से पूरा हुआ। इतनी देर से ही सही, पर अब वह इस परिवार की एक हिस्सा थी।*********************************************** मौमिता बागची।  

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