Film Review: The great Indian Kitchen

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Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 23 Apr, 2021 | 1 min read
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The great Indian Kitchen -- film की एक समीक्षा।

फिल्म की कहानी देखते समय कई बार ऐसा महसूस किया कि जैसे यह तो मेरी ही कहानी है, जिसे पर्दे पर दिखाया जा रहा है। हालाँकि फिल्म एक मलायली हाउसवाइफ की कहानी है जिनका एक पूरा दिन केवल अपने परिवार ( पति और ससुर) की सेवा, देखभाल या उनकी फरमाइश पूरी करने में ही बीत जाती है, परंतु मेरा यह मानना है कि संपूर्ण भारत की गृहिणियाँ ज़रूर इसमें अपनी ही कहानी पाएंगी। क्योंकि कमोवेश यह फिल्म संपूर्ण गृहिणी प्रजाति की कहानी कहती हैं। इस फिल्म में एक उल्लेखनीय बात शायद यह है, जो मेरी इस दलील की भी पुष्टि करती है, कि इस फिल्म में किसी भी किरदार का कोई नाम नहीं है। शायद फिल्ममेकर यह संदेश देना चाहते हैं कि यदि पात्रों को हम और आप अपना नाम दे दें तो भी कहानी ज्यों की त्यों फिट बैठेगी। यह कोई आम सास- बहू वाली फिल्म नहीं है, नायिका की सास अपितु अच्छी हैं, वे ही एक मात्र ऐसी हैं जो कि उनका दर्द समझती हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं भी आजीवन इसी व्यवस्था को झेला है। फर्क केवल इतना है कि उनके अंदर व्यवस्था( पुरुषवाद) के प्रति कोई विद्रोह नहीं है बल्कि उन्होंने अपने आपको उसी के अनुकूल बना लिया है। नायिका की माँ भी अपनी बेटी को उसी व्यवस्था के अनुसार खुद को ढाल लेने के लिए कहती है। दरअसल यह जो मुद्दा है, उसे हम महिलाएँ सदियों से यूँ ही तो मान लेते आए हैं। सो, नायिका भी तब तक उसे सहती है जब तक कि उसकी सहनशक्ति जवाब नहीं दे देती हैं। इस फिल्म में कुछ ऐसे मुद्दे उठाए गए हैं जिन्हें हम बिना सोचे रोज़ ही करते हैं-- मसलन, ससुर जी को सुबह चाय देने से पहले ब्रश लाकर देना, बाहर जाते समय उनके जूते लाकर देना, फिर गर्मागर्म ताज़ा नाश्ता बनाकर खिलाना। फ्रीज में रखा हुआ खाना उन्हें पसंद नहीं है। कूकर में बनाया चावल भी उन्हें नहीं खाना, सो गैस का चूल्हा होते हुए भी लकड़ी के चूल्हे पर चावल बनाना, चटनी को मिक्सर में नहीं बल्कि हाथों से सिलबट्टे पर पीसना, हर बार चटनी के साथ- साथ सांभर भी हो। पति को तो रात को रोटी ही चाहिए सुबह का चावल नहीं चलेगा, रोज़- रोज़ बाहर का खाना उन्हें हजम नहीं होता,,इसलिए उनके लिए सुबह उठकर टिफिन बनाना। "टेबुल मैनर्स "की तो कोई बात ही न करें क्योंकि झूठन साफ करना तो औरतों का काम है। फिर गलती औरत की न भी तो तो भी " sorry " केवल उसे ही बोलना है, क्योंकि उसने कड़वी सच कहकर male ego को ठेस जो पहुँचाई है! औरत चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी हो-- परंतु फोरप्ले या सेक्स के बारे में बातें नहीं कर सकती है। वह बाहर काम करने भी नहीं जा सकती क्योंकि डांस टीचर की नौकरी करने से परिवार की झूठी शान की नाक कटने की संभावना होती है। उसका तो अधिकार है केवल सुबह से शाम तक एक बैल की तरह निःशब्द होकर खटते जाना । केवल महीनों के उन चार- पाँच दिनों में उसको आराम मिलता है, वह भी ऐसा आराम कि उसे कमरे में बंद रहना पड़ता है, यहाँ तक कि वह पलंग पर भी नहीं बैठ सकती है-- एकदम अछूत बन जाती है। सबरीमाला का प्रसंग और उस महिला रिपोर्टर के घर पर रात को हमला तो हम दर्शकों के सारे धैर्य के बाँध तोड़ देती हैं और हम यह कयास लगाए बैठे होते हैं कि कब नायिका विद्रोह करें। और आखिर में वह बगावत करती है, और अपने तरीके से करती है। मेरे ख्याल से फिल्म का अंत थोड़ा सा और बेहतर हो सकता था। एकल विद्रोह की जगह अगर सामुहिक विद्रोह को दर्शाया जाता तो शायद अच्छा होता, क्योंकि यह समस्या किसी एक व्यक्ति की नहीं है, अपितु पूरे वर्ग की है। अतः उसका आयाम में थोड़ा और विस्तार दिया जाता तो शायद अच्छा होता। फिल्म का पटकथा और निर्देशन जियो बेबी का है। और यह फिल्म अमेजाॅन प्राइम पर देख सकते हैं।

मेरी ओर से इस फिल्म को 8/10 रेटिग्स मिलनी चाहिए।

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