#ichallengeyou #10blogs writing contest -6

हिन्दी का purana रूप

Originally published in hi
Reactions 0
705
Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 18 May, 2020 | 1 min read

हिन्दी भाषा का इतिहास -

आज हम चर्चा करेंगे कुछ प्राचीन भाषाओं की, जिनसे हमारी आधुनिक कालीन हिन्दी विकसित हुई है।

अपभ्रंश, अवहट्ठ और पुरानी हिन्दी

अपभ्रंश

अपभ्रंश प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की अंतिम कड़ी है। इसके लिए ग्रामीण भाषा, देशी भाषा? आभीरी आदि नाम भी प्रचलित है। छठी शताब्दी तक अपभ्रंश काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी। जो "अपभ्रंश' शब्द दो शताब्दी ईसा पूर्व 'अपशब्द' के लिए प्रयुक्त होता था, वही ईसा की छठी शताब्दी तक आते- आते एक साहित्यिक भाषा की संज्ञा बन गया। मोटे तौर पर अपभ्रंश काव्य भाषा का समय 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक माना जाता है।

नमिसाधु ( 10वीं शताब्दी) ने अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं- 1) उपनागर, 2) आभीर, 3) नागर। मार्केण्डेय ने भी 'प्राकृत सर्वस्व' में इसके तीन भेद कहे हैं- 1) नागर, 2) उपनागर, 3) ब्राचड़। अपभ्रंश के मुख्यतः दो भेद हैं- पूर्वी और पश्चिमी।

अवहट्ठ

'अवहट्ठ' परवर्ती अपभ्रंश का ही एक भेद है जो परिनिष्ठित अपभ्रंश की अपेक्षा लोक भाषा अपभ्रंश के अधिक निकट है। आधुनिक देसी भाषाओं के आरंभ की दृष्टि से' अवहट्ट' का विशेष महत्व है। ' वर्ण रत्नाकर' ( ज्योतिर्रीश्वर ठाकुर ) और 'कीर्तिलता' ( विद्यापति) की रचनाएँ इसी के अंतर्गत आती हैं।

संस्कृत ' अपभ्रष्ट' से विकसित- अवहत्थ, अवहट्ठ, अवहठ, अवहट और औहट जैसे शब्दों का प्रयोग अपभ्रंश भाषा के लिए होता रहा है। स्वयंभू ने अपनी ' रामायण' में 'अवहत्थ', अब्दुल रहमान ने 'संदेश रासक' में 'अवहट् ट' ज्योतिरिश्वर ठाकुर ने 'वर्ण रत्नाकर' में अवहट्ठ तथा विद्यापति ने 'कीर्तिलता' में 'अवहट्ठ' शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह स्वयंभू (8वीं शती) से विद्यापति (14वीं शती) तक' अवहट्ठ' शब्द का प्रयोग परिनिष्ठित अपभ्रंश से अलग देसी अपभ्रंश काव्य भाषा के लिए होता रहा है। विद्यापति ने इसे 'देसिल बयाना'अर्थात् देशी भाषा कहा है-" देसिल बयाना सब जन मिट्ठा, तैं तैंसन जम्पजोअवहट्ट्ठा।"


विद्वानों ने इसे सन्धिकालीन अपभ्रंश कहा है। इस आधार पर अवहट्ठ को अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कड़ी माना जा सकता हैं। साहित्य में काव्य भाषा के रूप में अवहट्ठ का प्रयोग काल 900 ईसवी से 1100 ईसवी तक माना जाता है, किन्तु
विद्यापति की ' कीर्तिलता' से स्पष्ट है कि इसका प्रयोग 14 वीं शती तक होता रहा।

पुरानी हिन्दी

ज्यों -ज्यों काव्य भाषा देशभाषा की ओर अधिक प्रवृत्त होती गई, त्यों-त्यों तत्सम संस्कृत शब्द रखने में संकोच घटता गया। शारंगधर के पद्यों में इसका प्रमाण मिलता है। चंदवरदायी के पृथ्वीराज रासो में इसका प्रयोग देखिए-
" पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृप कज्ज"
विद्यापति की कीर्तिलता में इसके अन्तिम दर्शन होते हैं।

0 likes

Published By

Moumita Bagchi

moumitabagchi

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.