अन्नदाता की सोच

एक किसान के मन की व्यथा

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Mona kapoor
Mona kapoor 06 Jun, 2019 | 1 min read

आज फसल कटाई के बाद हरिया के चेहरे पर खुशी व मन में शांति न थी। कैसे करेगा सारा खर्चा ,कुछ महीनों बाद बेटी के हाथ जो पीले करने थे। उधेड़बुन में मन उलझा ही हुआ था कि ऊपर से ये चुनावी प्रचार की रैलियों के चलते रोज़ कोई न कोई नई पार्टी का उम्मीदवार घर की चौखट पर आ खड़ा होता।

"राम-राम काका। एक सफेद कुर्ता-पजामा धारी हाथ जोड़ता हुआ बोला। मैं आपका अपना बेटा, आगामी चुनाव में खड़ा हुआ हूं। उम्मीद करता हूं आपका समर्थन मिलेगा। अगर आपने मुझे वोट दिया तो मैं आश्वासन देता हूं इस गांव में रहने वाले हर एक लोगों का जीवन बिल्कुल बदल दूँगा। मैं और सिर्फ मैं ही तुम्हारे साथ हूं व अवश्य ही तुम्हारे हक के लिए लडूंगा।"

हर राजनीतिक दलों द्वारा बोली जाने वाली यह बात सुनकर हरिया का मन प्रफुल्लित हो जाता लेकिन यह क्या! "हरिया तो पहले भी अकेला था व आज भी अकेला ही है।" इन सभी राजनीतिक दलों का उसके साथ आकर खड़ा होना तो उनका स्वयं का स्वार्थ हैं। खुद को अन्नदाता कहने वाले इस बात से अंजान थे कि असली अन्नदाता तो हरिया ही है जो मेहनत से अपना खून पसीना बहाकर इन्हें पेट भरने के लिए भोजन देता हैं। खुद को हर चीज़ का कर्ता-धर्ता कहने वाले राजनीतिक दल एक किसान को केवल आश्वासन देकर उसका लाभ उठाना जानते हैं। यह सब होता देख हरिया का मन बहुत विचलित हो उठा था। उसे डर था कि कहीं इन स्वार्थियों के कारण उसके देश की धरती जो सोना उगलती हैं,उस पर किसी किसान को निगलने का आरोप न लग जाए।

धन्यवाद

मोना कपूर

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