" खौली पास डायरी के कतिपय अन्श"

ट्रेकिंग के संस्मरण

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Kamlesh Vajpeyi
Kamlesh Vajpeyi 06 Oct, 2021 | 1 min read



 " संस्मरण " खौली पास " डायरी के कतिपय अंश

मुझे, एक बार "यूथ हास्टल एसोसिएशन " दिल्ली द्वारा आयोजित 20 दिवसीय ट्रेकिंग प्रोग्राम में शामिल होने का सुअवसर मिला,

जिसे मैं कभी भी भूल नहीं सकता हूं. अतः उसके अनुभव साझा कर रहा हूं.

18.5.1982

रायसन कैंपिंग ग्राउण्ड

कल रात, 11 बजे मैं अपने साथी राकेश कपूर के साथ बेस कैम्प पहुंचा. ठंड काफी थी, बस से, उतरते ही प्रोग्राम आफिसर श्री नरेश शर्मा ने हमारा स्वागत किया और जल्दी ही हमें टेन्ट ऐलाट कर दिया गया.

दो दिन की यात्रा की थकान ने हमें जल्दी ही सुला दिया

.

सुबह 5.15 के करीब, साहब चाय की आवाज़ के साथ हम उठते हैं. मैं, टेन्ट खोल कर देखता हूं तो देखता ही रह जाता हूँ, 5 फीट दूर व्यास नदी बह रही है, प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है,

7 बजे हम ड्रिल के लिए जाते हैं, दौड़ने, जागिंग करने के बाद, एक किलोमीटर दूर, अभ्यास के लिए जाते हैं. आठ बजे, लौटते लौटते अनभ्यासी शरीर थकान से चूर हो जाता है.

रुकसैक में दो कम्बल डाल कर, कुछ ऊंचाई पर चढ़ा कर हमें वातावरण का अभ्यस्त बनाया जाता है. लौट कर पता चलता है कि खराब मौसम होने के कारण हमें, कई दिन यहीं प्रतीक्षा करनी होगी.

बेस कैम्प का वातावरण बड़ा रोचक और अनुशासनबद्ध था. रात को कैम्प फायर के बीच, बोर्नवीटा की चुस्कियों के साथ, अन्य प्रदेशों से आये साथियों से गीत,चुटकुले आदि सुनते.

रोज़ ड्रिल से लौट कर, हम पंक्तिबद्ध होकर' चन्द्र खानी' पास जाने वाले ग्रुप को, विदाई देते.

कुछ दिन बाद घोषणा हुई कि खौली पास का मार्ग खुल गया है. दूसरे दिन हमारा ग्रुप भी अगले शिविर के लिए प्रस्थान कर गया.

26.5.1982

कसौल 4500 फीट

:रायसन' से हम लोग 'जाना' ' माटीकोचर और' जारी' के कैम्प में पहुंचे. बीच में एक एक दिन का निवास कैम्पों में रहा, पथरीली जमीन के ऊपर प्लास्टिक फिर मिलिट्री के कंबल, उन्हीं पर हम, पूरे कपड़ों में, रोल हो जाते थे.

वहां से हमें 10032 फीट ऊंचाई का 'ब्रिंगटा टाप' पार करना था, ब्रिंगटा टाप से हमें 4000 फीट तक उतरना था. ट्रेकिंग का पूरा रास्ता हरीभरी घाटियों, सघन वनों और आकर्षक प्रपातों के बीच से गुजरता था.बहुत अच्छा लगता था. कैम्प-लीडर काफी अनुभवी होते थे.

ऊपर के कैम्पों के लिए ' कसौल' आधार शिविर था. पास ही, मणिकर्ण' नामक रमणीक स्थल है, जहां गरम पानी के स्रोत हैं. वहां के गुरुद्वारे में उसकी भाप का उपयोग चावल आदि पकाने में किया जाता था.

आगे जाने के लिए ' ग्राहन' और पडरी ' दो कैम्प हैं.

' पडरी' 9250 फीट

पडरी कैम्प में बहुत ठंडी, बर्फीली हवा शाम से ही चलने लगती थी. सब जगह शाम 4 चाय का और 7.30 खाने का समय होता था. लाइट केवल बेस कैम्प, रायसन में ही थी. बाकी जगह तीन सेल वाली टार्च का उपयोग हम लोग करते थे.

कैम्प के पास बर्फ की स्लोप पर, स्कीइंग इन्सट्क्टर श्री कौल हमें बर्फ पर चलने की विधि से परिचित कराते हैं,कैम्प लीडर श्री गोखले बहुत उत्साही व्यक्ति हैं

दूसरे दिन सुबह 4बजे उठ कर ,नाश्ता व दूध, दलिया खा कर, हम 'खौली पास ' के लिए चल देते हैं. देर होने से बर्फ पिघलनी शुरू हो जायेगी.

  स्कीइंग इन्सट्क्टर, श्री कौल स्कीइंग शूज और कुदाल से रास्ता बनाते हैं और हम सब, एक पंक्ति में उनका अनुसरण करते हैं.

 तीन जोड़ी मोजों के ऊपर, हमने हंटर बूट्स, पर प्लास्टिक बांधी थी और उस पर मोम टपकाया था लेकिन फिर भी आधे घंटे में पैर बर्फ जैसे हो गये थे. हमें अन्दर बराबर उंगलियां चलाने का निर्देश था

 तीन घंटे बाद हम' खौली पास' पहुंचे. चारों तरफ बर्फ ही बर्फ दिख रही थी, . यहां से कई प्रसिद्ध पर्वतशिखर् देखे जा सकते थे, पास को पार कर पाना, उस मौसम में सम्भव नहीं था अतः हमें वापस आना था. लोकल गाइड ने, जो माउन्टेनियरिंग रोप भी लादे था, पर्वतशिखर् की पूजा करके सबको प्रसाद बांटा.

हम लोगों ने एप्पल जूस के टिन बर्फ में गाड़ कर पिये. अब हमें स्लाइड करके वापस आना था. एक बजे हम लोग वापस पडरी कैम्प पहुंचे.

   पडरी का' कैम्प फायर' हल्की बारिश , तेज़ ठंडी हवाओं के बीच सम्पन्न हुआ.

     वहां से कसौल होते हुए हम वापस बेसकैम्प रायसन, आ गये.

     रात्रि में 'वेलेडिक्ट्री फंक्शन' में हमें प्रमाणपत्र दिये गये.

तालियों की गड़गड़ाहट वातावरण में दूर दूर तक गूंज गई. कुछ साथियों ने गीत और ग़ज़ल प्रस्तुत किए.

        भावुकता के क्षण थे, 15 दिनों के 24 घंटों के सान्निध्य ने हमें एक परिवार जैसा बना दिया था. विभिन्न प्रदेशों से आये हुए, हम सब एक दूसरे से घुलमिल गये थे. अगले ही दिन हमें वापस जाना था, घर जाने की इच्छा के साथ विलग होने की अनुभूति, पीड़ा भी दे रही थी.

    2 जून 1982.

बस हमें हरीभरी कुल्लू घाटी से निकाल कर, तेज़ गर्म हवा में ले आयी है.

   बेस-कैम्प के रंग - बिरंगे ध्वज, लकड़ी की आकर्षक झोपड़ियां, वेदवती व्यास की दहाड़ और सामने की सर्पिलाकार सड़क. जो लेह तक जाती है, पीछे छूट रही है.! जैसे सुनहरा सपना टूट रहा हो.!

 हम कठोर वास्तविकताओं के संसार में लौट रहे हैं! लेकिन एक नये विश्वास और उल्लास के साथ..

ट्रेकिंग पर अक्सर जाने वाले, अपने साथियों से मैं पूछता था कि इस प्रकार, अपना सामान लाद कर, पहाड़ों पर मीलों पैदल चलने से उन्हें क्या मिलता है? अब महसूस होता है कि पांच सितारा होटलों में रहकर " कानडक्टेड टूर" करके घूमने और स्वयं, पैदल चल कर, पहाड़ी गांवों से होकर घूमने, झरनों का ठंडा पानी पीने में कोई तुलना सम्भव ही नहीं है.

तभी तो हमारे अनेक साथी, केवल इसी अलौकिक आनन्द के लिए, वर्तमान सभ्यता और सुविधाओं से कट कर, अपने परिजनों से दूर रहना, सहर्ष स्वीकारते हैं.

स्वरचित :

लेखक :कमलेश वाजपेयी

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Kamlesh Vajpeyi

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