बरगद की छांव

बरगद की छांव

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Ektakocharrelan
Ektakocharrelan 21 Feb, 2021 | 1 min read
#1000 poems

बरगद की छांव

इक डोरी में बांधे रखते

वो हर दिल को थामें रखते

जड़े उनकी मजबूत होती

छांव में उनकी सब बड़े होते

हंसी, ठहाका सब लगाते

आँख- मिचोली खेला करते

तंहाईयों का था न कोई ठिकाना

बरगद की छांव का था तब जमाना

न कोई चिंता ,न कोई फिक्र

लगते थे खूब हंसी-ठहाके

अपना ही दिन होता अपनी ही होती रातें

गुड़, मक्खन खा जिंदगी की

हर धूप के मजे लेते

न कोई ताला, न कोई चाबी

खुले सबके घर होते

किस्से हर कोई अपने कहता

"बरगद की छांव" का था जमाना

पत्ते सारे बिखर गये है

सब अपने में सिमट गये है

छांव भला फिर कैसे आये

बरगद "हमारी राह देख रहा

खुद को रिश्तों में समेट रहा

सहज न उस को होना आए

अपनी छांव फिर कैसे लाएं।

एकता कोचर रेलन

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