कश्मकश

धुआँ उठ रहा तो दूर तक जाएगा ये परिवर्तन क्या एक दिन में आएगा

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Deepali sanotia
Deepali sanotia 03 Mar, 2022 | 1 min read

जैसा देश वैसा भेष

जहाँ के हो अपना लो वहाँ का परिवेश

सोचोगे तो पाओगे ये परिवेश भी तो स्त्री के हिस्से ही आता है,

तुम कौनसी जात, कौनसा धर्म, कौनसे प्रांत या कौनसे देश से हो ये दारोमदार भी तो स्त्री का जिस्म ही पाता है।

वो देखो वहाँ कुछ मुस्लिम बैठे हैं,

अरे! वो देखो कुछ मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी लोग आ रहे हैं,

ज़रा ध्यान से देखो सबको ये स्त्री ही है जो फ़ैशन की मारी है,

अपने धर्म, अपनी जाती का गणवेश पहनकर ही तो सम्मान की अधिकारी है।

क्या स्त्री का कुछ अधिकार नहीं? इन परिवेशों से ऊपर होकर क्यों उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं?

ये स्त्री कहती है कि मैं देह और वेशभूषा से ऊपर भी तो कुछ हूँ,

सुनना चाहोगे तो मैं अपना मत भी कहूँ,

क्यों मुझे ही हर बार निशाना बनाते हो?

अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर क्या मेरे अस्तित्व संग निभाते हो?

मैं कोई दिखावे, मनोरंजन की चीज़ नहीं,

जो ना सुनू चुपचाप तुम्हारी तो मैं किसी को भी अज़ीज़ नहीं

ज़रा जी लेने दो मुझे, मेरे परिधान से तुम्हारा क्या लेना-देना,

मेरी वेशभूषा मेरा हक़ है, है मुझे भी अपना जीवन जीना

क्यों मेरा हिजाब तुम्हारा पेट दुखाता है?

क्यों मेरी पसंद का हर कपड़ा तुम्हारी उत्तेजनाओं को उकसाता है?

तुम हर बार खुद को मासूम ही बताते हो,

हर युग में ही स्त्री को बंदी बनाते हो

थोड़ा मुझे मेरे रुप से ऊपर भी आँको

और थोड़ा स्वयं के ग़िरेबान में भी झाकों

ना तंग करो मुझे बस इतना है कहना

समानता का अधिकार ही है हर युग में मेरा गहना

जानती हूँ समानता मेरे हिजाब से ना आ पाएगी

पर हिजाब में मेरा सुकून है बसता

बीना हिजाब के ये स्त्री आत्मसम्मान कहाँ से पाएगी

सब मिलकर यूँ मुझे कश्मकश में ना डालो

आदी हूँ मैं जिसकी, ग़लत हो भी तो इसे छोड़ ना पाऊँगी

ग़र छोड़ भी दिया तो भला मैं किससे वफ़ा निभाऊँगी

मेरा धर्म मेरी रगों-रगों में बहता है

सब सत्य जानती हूँ फिर भी मन धर्मानुसार चलने को ही कहता है

ये परिवर्तन क्या इतनी जल्दी हो पाएगा

जो अपनों ने ठुकरा दिया तो ये जहान मुझसे कौनसी वफ़ा निभाएगा

कश्मकश में हूँ मैं, ये हिजाब बंधन है या है मेरा गहना

अब आप ही कहो आपका क्या है कहना

मैं कुछ भी पहनूँ बस मुट्ठी भर आसमान चाहती हूँ

अपने जीवन को नव सपनों के रंगों से भरना चाहती हूँ

नसीब है मेरा ख़ुशहाल, ये दुनिया मेरे लिए आवाज़ उठा रही है

अनदेखी ही रही पर अब सुर्ख़ियों में ये स्त्री सबका साथ पा रही है


स्वरचित एवम् मौलिक

दीपाली सनोटीया











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