ख़ुदा-ए-सुख़न

Published By Paperwiff

Mon, Nov 7, 2022 11:17 AM

मुग़ल ज़माने के उर्दू शायर मोहम्मद तक़ी उर्फ़ मीर तक़ी मीर जो कि उर्दू और फ़ारसी ज़बान के ज़हीन-तरीन शायर जिन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न का लक़ब हासिल हुआ। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर कोई भी शख़्स जो शायरी से वाबस्तग़ी रखता हो वो मीर तक़ी मीर को न पढ़े तो वो शायरी की शरियत के हिसाब से ग़ुनाहगार है।

  पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

-मीर तक़ी मीर

 अगर आपसे मीर तक़ी मीर को न पढ़ ने का ग़ुनाह हो भी गया तो आपने ये शेर कहीं न कहीं ज़रूर सुना या पढ़ा होगा। इस शेर की सादग़ी से हर कोई वाकिफ़ है। ये शेर इतना आसानी से लिखा गया हर ज़माने में ‘फ़िट’ हो जाने वाला शेर कि आपको समझ भी नहीं आएगा कि कब ये ज़हन पर काबू कर गया।

 आज में आपको मीर तक़ी मीर की हाज़िर-जवाबी का एक किस्सा सुनाने वाली हूँ। ये बात तब की है जब दिल्ली लुट गई, थी उजड़ गई थी और ‘मीर’ रोज़गार की आमद की तलाश में लखनऊ के एक मुशायरे में जा पहुँचे। उस वक़्त दिल्ली का पहनावा थोड़ा अलग हुआ करता था वहाँ के लोग लम्बा कुरता, पायजामा और सिर पर क़ुल्ला यानी पगड़ी नुमा कुछ बाँधा करतें थें। तो मीर साहब ने भी मुशायरे में इसी तरह से शिरक़त फ़रमाई। लोग उनका मज़ाक उड़ाने लगे कि ये शख़्स क्या पहनकर आया है।

 मुशायरे की रिवायत होती थी कि शम्’आ जलाई जाती थी और जिसके भी आगे शम्’आ रखी जाती उसको मौक़ा दिया जाता था पढ़ने का। जब मीर के आगे शम्’आ पहुँची तो सबने पूछा हूज़ूर आप कहाँ  के रहने वाले हो तो उनकी हाज़िर जवाबी देखिये कि उन्होंने उसी वक़्त ये क़ता सुनाया।

क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो

हम को ग़रीब जान के हँस हँस पुकार के

  दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब

रहते थे मुंतख़ब ही जहाँ रोज़गार के

  उस को फ़लक ने लूट के बरबाद कर दिया

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के

               -मीर तक़ी मीर

मीर तक़ी मीर बहुत ही आलम तरीन शायर रहें हैं न उनकी हाज़िर जवाबी कि कोई मिसाल है न शायरी की सो ऐसे ही नहीं वह ख़ुदा-ए-सुख़न कहलाए जाते हैं।

-फ़िरदौस (Paperwiff)