तीन ख़ामोश औरतें

तीन ख़ामोश औरतें

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 08 Dec, 2020 | 1 min read
Prem Bajaj

(तीन खामोश औरतें)


वेदना से चिल्लाती निर्मला सोसायटी कंपाउन्ड में कराह रही थी। लगभग ८/१० घर का काम करती थी सालों से इसी सोसायटी में आज रोती चिल्लाती अपने पति से त्रस्त सोसायटी वालों से मदद की गुहार लगा रही थी। मैड़म बचालो मेरा घरवाला मार देगा मुझे सालों से सहती आ रही हूँ अब नहीं सहा जाता।

कमाकर देती हूँ मुफ़्त की नहीं खाती। सुबह से शाम तक हाथ छील जाते है। घर जाकर बच्चों को संभालना घर का काम करना उपर से इनके ताने सुनना।

मारपीट करना तो अब रोज का हो चुका है कब तक सहूँ।

निर्मला की आवाज़ सुनकर नीलम, माला, रजनी सब नीचे आ गई ओर निर्मला की आपबीती सुनकर नीलम मन ही मन खुद की तुलना निर्मला से किए जा रही थी। क्या फ़र्क है मुझमें और निर्मला में, ये घरकाम करके कमाती है मैं कोर्पोरेट जगत में मैनेजर हूँ पर हालत तो दोनों की एक सी है। रवि भी तो कसाई से कम नहीं। मैं भी सुबह से शाम तक घर का काम और ओफिस दोनों देखती हूँ पर लाट साहब की तरह हुकूम चलाने में माहिर रवि तारीफ़ तो छोड़ो हर बात में गलती निकालते डिवोर्स की धमकी देता रहता है। और कभी कभार हाथ भी उठाता है। मेरे कमाए पैसों पर हक जताना, ओर रेस में पैसे हार जाना उफ्फ़ निर्मला के पति में ओर रवि में क्या फ़र्क है। निर्मला सबके सामने भड़ास निकाल सकती है मैं कहाँ जाकर निकालूँ। स्तब्ध सी बस सहते रहना है एक सिसकी अंदर ही अंदर दब गई नीलम ने शर्दी का बहाना बनाते आँखें पौंछ ली।

निर्मला ओर ज़ोरों से रोने लगी। मैड़म और तो और हर रात दारु पी कर आना ओर बच्चों के सामने झगड़ा करना मारना ये तो रोज का हो गया है। ये देखो आज जलती सिगरेट से हाथ जला दिया 

तो कभी कोई सामान उठाकर सर फोड़ देता है। माला ने कमर पे उभरे सिगरेट के निशान छिपा लिए। दो दिन पहले पंकज ने दारु के नशे में जलती सिगरेट रख दी थी माला ने बहुत पीने पर हाथ से ग्लास लेने की कोशिश की तो। गंदी गाली के साथ माला की कमर पर जलती सिगरेट चिपका दी थी। रूह काँप उठी माला की कितनी लाचारगी से ज़िंदगी जीनी पड़ती है थप्पड़ जड़कर गाल लाल रखने पड़ते है। पंकज भी कान में कीड़े पड जाए एैसी गालियों से नवाजता है। क्या गलती है मेरी सिर्फ़ उसके दारु पीने पर टोकती हूँ यही।

कहने भर को उच्च मध्यम परिवार कहलाता है फ़र्क इतना है की निर्मला सराजाहेर ये तमाशा कर सकती है मैं नहीं। माला रुँआसी हो उठी निर्मला में खुद की छवि पाकर।

निर्मला की आहें बढ़ती जा रही थी मैड़म क्या बताऊँ शर्म आती है कहने में भी पर मोया रोज रात को चुटकी सिंदूर का बदला बलात्कार से लेता है हमार मन हो की ना हो बस चढ़ जाता है सीने पर।

रजनी ने आँखें झुका ली मन ही मन बोली बहुत अच्छे से समझती हूँ इस दर्द को रोज झेलती हूँ बलात्कार की पीड़ा।

समाज में होते बलात्कार जो ज़ाहिर होते है वो तो अख़बार में छपते है पर एैसे बलात्कार की रिपोर्ट कहाँ कराने जाएँ

जो शादी को लाईसेंस समझकर किया जाता है। विनोद को रोज चाहिए मन हो या ना हो तबियत ठिक हो या ना हो वहशियत भरा खेल मेरे बेडरूम में भी रोज खेला जाता है। ओर मना करने पर कभी थप्पड़ तो कभी लात। शाम से ही डर बैठ जाता है मन में हे भगवान ये रात होती ही क्यूँ है।

एक शराबी पति से सताई हुई गरीब औरत का दर्द तीन सभ्य समाज की महिलाएँ बखूबी जी रही थी अपने अंदर।

ना ज़ाहिर में बोल सकती थी, ना तड़प सकती थी, ना रो सकती थी।

बस एक झूठी हंसी होंठों पे सजाएँ निर्मला को चूप करा रही थी भीतर ही भीतर दर्द से चिल्लाती तीन खामोश औरतें। खुद को बौना महसूस कर रही थी। एक गरीब कामवाली अपनी पीड़ा पूरे समाज के सामने रो रो कर चिल्ला चिल्ला कर बता सकती है हम अपना दर्द कहाँ जाके सुनाएं। मर्दों के आधिपत्य वाले उच्च सभ्य समाज में हमें हंसते रहना है एक ज़लज़ले को दबाकर दिल में सभ्यता का चोला पहने॥

(भावना ठाकर)#भावु 

बेंगलोर, कर्नाटक  

स्वरचित

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