ज़िंदगी की यही रीत है

ज़िंदगी की यही रीत है

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 10 Jan, 2021 | 1 min read
Prem Bajaj

ज़िंदगी की यही रीत है"


@भावना ठाकर 

कुछ कहावत को सार्थक करते ज़िंदगी को उसके असली रुप में स्वीकार करते ही इंसान को जीना पड़ता है,

जैसे,

भूख न देखे मांस, नींद न देखे बिस्तर

इश्क न देखे ज़ात और मौत न देखे उम्र। 

ज़िंदगी अपने तेवर नहीं बदलती बदलना हमको है। हर हाल में जीना जो है। कई बार हम अकुलाहट के मारे बेकाबू हो जाते है, जो मिला उसकी खुशी मनाने की बजाय जो हासिल नहीं उसे पाने की चाह में। पर जो, जितना हमें मिला है उसका एक प्रतिशत भी जिसे हासिल नहीं उसके बारे में सोचेंगे तो रोज़ ईश्वर का अहसान मानते प्रार्थना में हाथ खुद ब खुद उठ जाएंगे। 

खाने से शुरू करें तो कितने नखरे होते है हमारे, ये सब्ज़ी पसंद वो नहीं पसंद, आज ये क्यूँ नहीं बनाया कल वो जरूर बनाना, ये नहीं सोचते की कम से कम दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो है हमारे पास। दर दर हाथ फैलाते भटकना नहीं पड़ रहा, नांहि कूड़े कचरे से किसीकी जूठन उठाकर खाना पड़ रहा। भूखे गरीब इंसान को ज़िंदा रहने के लिए मांस खाते तक देखा है। पेट की आग सबसे बड़ी पीड़ा है, तो जो मिले जैसा मिले शांति से ईश का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लेना चाहिए।

दूसरी बात करते है नींद और सुकून की कहाँ सबको नर्म गद्दे और मखमली चद्दर नसीब होती है। बहुत बड़ा विरोधाभास है, सुबह से शाम कुर्सी टेबल पर बैठकर काम करने वाले इंसान को रात को सुकून सभर शामियाने के भीतर आरामदायक बिस्तर तो नसीब होता है, पर नींद से मानों जन्मों की दुश्मनी हो बिना दवाई लिए ख़्वाबगाह की दहलीज़ पर दस्तक तक नहीं देती। उससे परे पूरा दिन तनतोड़ मेहनत से थकाहारा इंसान फूटपाथ पर हल्की मैली चद्दर बिछाकर चैन की नींद सो जाता है। तो बात यहाँ सहुलियत की है संतोष की है।

प्रेम, प्यार, इश्क, मोहब्बत की बात करें तो वो भी सबको सच्चा कहाँ मिलता है। कोई-कोई भरे-पूरे परिवार के बीच भी खुद को तन्हा पाता है। कोई दोस्तों में ढूँढता है, कोई रिश्तेदारों में तो कोई मोबाइल जैसे छोटे से मशीन की आभासी दुनिया में अपनापन ढूँढता है। पर सोचो जिनकी लकीरों में प्यार लिखा होता है उसे पहली नज़र की कशिश में ही मिल जाता है। प्यार कहाँ उच्च-नीच ज़ात-कज़ात देखता है। जब होता है तो रूह की शिद्दत से होता है। तकदीर की बात है खुद को कोसे मत समझिए ज़िंदगी का यही रवैया है।

आख़िर में मौत को ही ले लीजिए, कहाँ मांगने से मिलती है और कहाँ प्रार्थना से टलती है। अपनी मनमानी करते समय कसमय हमारी मर्ज़ी के विरुद्ध आ धमकती है। कहाँ देखती है उम्र की कसक, जिस पर दिल आता है उठाकर ले जाती है। बड़े बुज़ुर्ग बिमारियों से लड़ते जूझते हैरान परेशान हाथ उठाकर मौत को निमंत्रण देते रहते है और मौत चुपचाप आकर घर के चिराग को उम्र के मध्यान्ह पर ही बुझाकर बेशर्मी से निकल लेती है। तो कुलमिलाकर छोटी-छोटी बातों पर असंतोष जताते शिकायत करने की बजाय इंसान को हंमेशा ज़िंदगी से जो भी मिले समझौता करके हंसी खुशी अपना कर जीना चाहिए, यही तो ज़िंदगी की सच्चाई है। अपने हाथ में कुछ नहीं किसीको अचानक ज़मीन से उठकर आसमान की ऊँचाईयां छूते भी देखा है और किसीको कटी हुई पतंग की तरह आसमान से ज़मीन पर गिरते भी देखा है। तो उस गीत की पंक्तियाँ दोहराते जीते रहो।

"हर घड़ी बदल रही है रुप ज़िंदगी छाँव है कभी कभी है धूप ज़िंदगी हर पल यहाँ जी भर जिओ जो है शमा कल हो न हो।

बेंगुलूरु, कर्नाटक

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