ईद के दिन दयार-ए-मदीना की चौखट चूमने निकला था अल्लाह तुम्हारी तलाश में भटकते..
जा रहा हूँ बेतरबी का ज्वार भरते आँखों में तुम्हें ढूँढते की टकरा गया एक हसीन हुश्न के नूर से..
टकराने पर ललना का हल्का जो हिजाब हटा यूँ लगा जैसे सारी कायनात पर मैख़ाने सा नशा छा गया..
गुरुर था खुद पर नहीं झुका कभी दिल नखरों के आगे, वल्लाह खनखनती चुड़ियों की सरगम संग ताल मिलाती हंसी की झंकार ने बंदे को मदहोश कर दिया..
क्या गज़ब की चकाचौंध थी माहताब के जलवों में लफ़्ज़ हलक में ही अटक गए, लब मौन के टीले पर ठहर गए, आँखें बंद हो गई, इबादत में खुद-ब-खुद हाथ उठ गए..
दिल ने महसूस किया तस्वीर-ए-खुदा होती तो कैसी होती? सामने जो मंज़र खड़ा है उससे हसीन तो नहीं होती..
घुटनों के बल बैठकर उनको मांग बैठा मैं उनसे ही, कि आसमान की ओर देखते घंटियों के नाद सी आवाज़ में वह कह गई उठिए जनाब चाँद मुबारक हो..
हमने भी मुस्कुराकर कहा जी हुज़ूर हमें हमारा चाँद मुबारक हो, वह शर्मा कर चल दी, हम हकलाते रह गए अअअजी सससुनिए तोओओओओ..
माफ़ करना खुदा आप तो मदीना के कण-कण में बसे हो ढूँढ ही लेंगे एक दिन आपको, फ़िलहाल हमारा चाँद छूप जाए बादलों की ओट में उससे पहले हमें चाँद के पीछे चलना होगा..
ए खुदा... खुदा हाफ़िज़, तेरी रहमत का कोई मोल नहीं निकला था तुझे ढूँढने मेरा रकीब मिल गया मुझे, तेरी रहमत का नूर बरसा ईद के दिन और हसीना के आगे बंदे का गुरुर झुक गया...
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
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