समरथ को नहीं दोष गुसाईं

संतानों का अपने माता पिता से जुड़ाव तो एक प्राकृतिक अहसास होता है।फिर लड़के और लड़कियों के लिए इसके मापदंड अलग अलग क्यों होते हैं?

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 21 Jun, 2020 | 1 min read
#Social issues

"तुषार मुझे तुमसे कुछ बात करनी है" निमिषा ने ऑफ़िस जाते तुषार से कहा।

"बोलो",टाई बाँधते हुए तुषार ने बड़ी लापरवाही से कहा।

''पापा ने फ़ोन किया था कि माँ की तबीयत ठीक नहीं है, मैं एक हफ़्ते के लिए माँ के पास चली जाऊँ?"बड़ी आशा से निमिषा ने पूछा।

"मैं नहीं जानता, तुम माँ से पूछ लो।''तुषार ने बड़े ही अनमने ढंग से कहा और ऑफ़िस के लिए निकल पड़ा।

''मम्मी जी, मैं हफ़्ते भर के लिए मायके चली जाऊँ?"

"क्यों ऐसी क्या हड़बड़ी है?"

"वो माँ की तबीयत खराब है, इसलिए"

"दो दिन बाद भैया दूज है, रिया(निमिषा की ननद)आ रही है।मुझे तो वैसे ही घुटनों में दर्द रहता है, मुझसे घर के काम नहीं होते, तुम बाद में चली जाना।"सख़्त आवाज़ में कहती हुई मम्मी जी चली गईं।

पलकों में आँसू सोखती हुई निमिषा चुपचाप रसोई में चली गई।ये कोई पहली बार नहीं था, जब मम्मी जी ने ऐसा कहा हो।जब भी वो मायके जाने की बात करती,तुषार या मम्मी जी कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाते।मायके जाना उसके लिए एवरेस्ट पर चढ़ाई करने जैसा दुष्कर था।

"शादी के बाद मायके का इतना मोह अच्छा नहीं होता।"यह बात न जाने कितनी बार और कितने तरीकों से उसे बताई और जताई जाती।

शाम को पापा का फ़ोन आ गया "निम्मो, मैं कब आ जाऊँ बिटिया तुम्हें लिवाने?माँ तेरी राह देख रही है।"

"मैं अभी नहीं आ पाऊंगी पापा, मम्मी जी की तबीयत भी ठीक नहीं"भर्राए गले से कहती हुई निमिषा ने फ़ोन काट दिया।

"संतानों का अपने माता-पिता से जुड़ाव तो एक प्राकृतिक और स्वाभाविक एहसास है।फ़िर लड़के और लड़कियों के लिए इसके मानदंड अलग-अलग क्यों होते हैं?" भरे गले से सोचती निमिषा की आँखों में आँसू छलक आते और आँसुओं मेंं गड्ड-मड्ड होता एक भी शब्द उसे संतोषप्रद जवाब नहीं दे पाता।

आज करीब चार साल बाद निमिषा के देवर की शादी थी।लड़की वाले बड़े रईस थे सो दान-दहेज भी दिल खोलकर दिया था।

"क्या जी खोलकर दिया है छोटी बहुरिया के मायके वालों ने!वरना लोग तो बेटियों की विदाई बोझ समझकर कर देते हैं।" निमिषा मम्मी जी का इशारा समझ गई थी।वो एक सामान्य परिवार से थी इसलिए दहेज में ज़्यादा रकम लेकर नहीं आ पाई थी।देवरानी स्वाति की चाल-ढाल सबमें उसके रईस घराने का रूतबा झलकता।संकोच के मारे निमिषा उससे कभी अधिक संवाद भी नहीं स्थापित कर पाई।

शादी के दो महीने बाद एक दिन स्वाति बैग उठाए हॉल में चली आ रही थी।

"कहाँ की तैयारी है बेटा?"मम्मी जी ने स्नेह भरे स्वर में पूछा।

'बेटा?' निमिषा हैरान थी।मम्मी जी ने इन चार सालों में उसे कभी बेटा कहना तो दूर, बेटी कहकर भी संबोधित नहीं किया था।

"वो मम्मी जी,दीदी और बच्चे आ रहे हैं वेकेशन्स में,सो मैंने सोचा मैं भी हो आऊँ।पापा ने ड्राइवर भेज दिया है।" बेलौस अंदाज़ में स्वाति बोली।

"हाँ हाँ,क्यों नहीं?आख़िर बच्चों का भी तो मन करता होगा मौसी के साथ समय बिताने का।चली जाओ बिटिया, समधन को मेरा प्रणाम कहना।" मम्मी जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

निमिषा मम्मी जी के इन बदले तेवरों को देख हैरान रह गई।स्वाति के जाते ही पूछ बैठी "मम्मी जी,आपने स्वाति को एक बार भी मायके जाने से नहीं रोका?"

"नई-नई शादी है उसकी,मन किया तो चली गई।"मम्मी जी ने टालने की गरज से कहा।

"चार साल पहले तो मैं भी नई थी ना मम्मी जी?" साहस कर निमिषा पूछ बैठी।

"तेरी बात अलग थी।स्वाति ऊँचे खानदान से है।रसूखदार परिवारों में गिनती है उसके मायके की।अपने मायके को देखा है?भिखमंगों की तरह भेज दिया था तुम्हें, ना ढंग का दहेज, ना साजो-सामान,उससे तुम्हारा क्या मुकाबला?मेरा मुँह मत खुलवाओ तुम" निमिषा के कानों में पिघला शीशा उँड़ेल मम्मी जी जा चुकी थीं।

निमिषा फूट-फूटकर रो पड़ी थी। "एक ही घर में इतना भेद?"उसकी आत्मा छलनी हो गई।दूर कहीं लाउडस्पीकर पर रामचरित मानस की चौपाई सुनाई दे रही थी ''समरथ को नहीं दोष गुसाईं"

समाप्त


मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित @अर्चना आनंद भारती


परिवारों में उठते मनोमालिन्य के मूल कारणों पर प्रकाश डालती मेरी ये कहानी एक काल्पनिक रचना है।इसका उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है।यदि आपको मेरी रचना पसंद आती है तो कृपया मुझे बताना न भूलें।ऐसी अन्य दिलचस्प रचनाएँ पढ़ने के लिए आप मुझे फॉलो भी कर सकते हैं।

आभार!

आपकी सखी, अर्चना


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