शुभ्रा जी की कोई बेटी नहीं थी,केवल दो बेटे थे - नील और निकेतन।बेटियों का बड़ा लोभ था उन्हें।जब बेटे छोटे थे तब उन्हें ही कभी फ्रॉक,कभी पायलें पहनाकर अपने शौक पूरे करती थीं।ऐसे में जब तृषा बहू बनकर आई तो उन्हें ऐसा लगा जैसे ईश्वर ने उनकी मुंहमांगी मुराद पूरी कर दी हो।
तृषा थी भी एकदम लक्ष्मी जैसी सुंदर,उसके पायलों और चूड़ियों की रुनझुन जैसे घर के नीरव वातावरण में रस घोल देती।सरल स्वभाव की शुभ्राजी उस पर बेटी जैसा लाड़ लुटाते हुए भूल ही गईं कि वो अलग परिवार से है और उसकी परवरिश अलग ढंग से हुई है और शायद यहीं उनसे चूक हो गई।
धीरे धीरे सास के सरल स्वभाव को उनकी कमजोरी मान तृषा ने अपने असली रंग ढंग दिखाने शुरू कर दिए।अक्सर ही रसोई में न जाने के बहाने ढूंढती।
"मम्मी जी किसी पार्टी में जा रही हैं क्या?""आपको भला इतने मेकअप की क्या जरुरत?""इस उम्र में इतना तामझाम अच्छा लगता है क्या?"तृषा मौका मिलते ही पूछने से और सुईयां चुभोने से बाज नहीं आती।धीरे धीरे शुभ्राजी भी खुद को बूढ़ी मानने लगीं।साज सिंगार से दूर भागने लगीं।इन्हीं दिनों तृषा के माँ बनने की खबर आई शुभ्रा जी तो फूले न समाईं।उन्हें पुरानी पीढ़ी की पारंपरिक सास मिली थी जिसने शुभ्रा जी के साथ हमेशा छत्तीस का आंकड़ा ही रखा इसलिए शुभ्राजी ने जापे में बहू का खूब ध्यान रखा।वो नहीं चाहती थीं कि तृषा के भी लिए मातृत्व एक कटु अनुभव साबित हो।
जब शुभ्रा जी एक सुंदर सी गुड़िया की दादी बन गईं तब तो उनके आनंद की सीमा न रही।अब शुभ्राजी का ज़्यादातर समय पोती को दुलारने में बीतता।उन्हीं दिनों शुभ्राजी की छोटी बहन सीमा उनसे मिलने आईं।सीमा ने देखा कि हमेशा हल्के मेकअप और हल्के जेवरों के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार रहने वाली शुभ्रा दीदी उलझे बालों के साथ मगन थीं।
"ये क्या हाल बना रखा है दीदी और तृषा कहाँ है?
"बाजार गई है " शुभ्राजी ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
"तुम तो कितनी व्यवस्थित रहती थीं।"
मितभाषिनी शुभ्राजी मुस्कुराकर रह गईं।रात में सीमा का बिस्तर शुभ्राजी ने अपने कमरे में ही लगवाया था।समय पाते ही सीमा ने फिर कुरेदा।
"तृषा कुछ कहती है क्या तुमसे दीदी?जब से आई हूँ तुम्हें व्यस्त देख रही हूँ।अरे थोड़ा ध्यान रखो अपना।"
"नहीं,वह क्या कहेगी सीमा, मैं ही ऐसी हो गई हूँ।"शुभ्रा जी ने कहा।पर सीमा को चैन कहाँ था?बातों ही बातों में पता लगाकर ही मानी कि बहूरानी को सास का सजना - संवरना पसंद नहीं।
अगले दिन नहाकर आई शुभ्राजी को सीमा ने हल्के से मेकअप के साथ सीमा ने तैयार कर दिया।शुभ्राजी ने देखा कि अख़बार पढ़ते मनोहर जी कनखियों से उन्हें ही देख रहे थे।शुभ्राजी के गालों पर हल्की सी लाली दौड़ गई।बेटा ऑफिस जा चुका था।तृषा ने देखते ही सवाल दाग दिया "कहीं जा रही हो क्या मम्मीजी?"
"क्यों कहीं जाने के लिए ही तैयार होते हैं क्या?"सीमाजी ने हस्तक्षेप किया ।
"नहीं,पर मम्मीजी की उम्र हो गई है न,इस उम्र में इतना कौन तैयार होता है?"
"सुरुचिपूर्ण तरीके से रहने में क्या बुराई है तृषा और ये उम्र उम्र क्या लगा रखी है?सिंगार एक सुहागन का अधिकार होता है।"
"नहीं मेरा वो मतलब नहीं था मासी " तृषा हड़बड़ा सी गई।"मैं खूब समझती हूँ तृषा ,दीदी कुछ कहतीं नहीं तो तुमने उनका सजना संवरना ही बंद करा दिया।और उम्र हो गई है तो तुम इन्हें सारा दिन व्यस्त क्यों रखती हो?इन्हें आराम करने दो अब।" तृषा मासी के सवालों में छिपा व्यंग्य समझ गई थी।
"मैं कहाँ... मम्मीजी ने खुद ही छोड़ा है सब" तृषा ने पाला बदला था।
"अब जबकि तुम तैयार हो ही गई हो तो क्यों न आज थोड़ा नगर भ्रमण कर आएँ?अब देखो न,इतने दिनों बाद सीमा भी आई है और तुम्हें भी आजकल कहाँ समय मिलता है?" माहौल की गंभीरता देख मनोहर बाबू ने हस्तक्षेप किया था।
" पर गुड़िया,उसे कौन संभालेगा?तृषा को कहाँ आदत है इतना सबकुछ संभालने की?" शुभ्रा जी ने चिंतित स्वर में कहा।
"कब तक तृषा की ढाल बनकर खड़ी रहोगी दी?उसे भी थोड़ा सीखने दो,आख़िर उसे भी तो अपने बच्चों के बच्चे पालने हैं?" सीमा के इस बेलौस अंदाज़ पर सब हँस पड़े थे लेकिन तृषा तिलमिला उठी थी।शुभ्रा जी तृषा के हावभाव ताड़ती हुई मुस्कुराती हुई चल दी थी, आख़िर सीमा ने ठीक ही तो कहा था न?
मौलिक एवं काल्पनिक
अर्चना आनंद भारती
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