हमारे वनस्पति प्रेमी पति

आपको तो पता ही होगा कि ये चीनी ममुफ्त मांगने वाली महिलाएं मुहल्ले भर का ज्ञान मुफ्त में दे जाती हैं।अब मुफ्त की चीज़ के लिए इनकार कैसे कर सकते हैं... अच्छा...

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 27 Jul, 2020 | 1 min read
#Comedy

आज लंबे समय के बाद हमने सोचा कि कुछ लिखें।पिछले कुछ दिनों से स्वास्थ्य कारणों से लेखन से दूरी बना रखी थी, पर क्या है ना कि कलम पड़ी मुंह चिढ़ा रही थी।सो सोचा कि आज कुछ लिख ही डालते हैं।


तो भई हम बैठ गए कागज़-कलम लेकर, अभी क्या लिखें, ये सोचने के लिए आँखें बंद ही की थीं कि आँखों में बथुए के हरे-हरे साग लहलहाने लगे।


ये हमारे पतिदेव को ना,सब्ज़ियाँँ खरीदने का भयंकर शौक है।वनस्पति से इसी लगाव के कारण जब भी लाएँगे, दो थैले भरकर लाएँगे।हम समझा कर थक चुके हैं कि भई हमें दावत नहीं करानी, ख़ुद ही खाना है, पर इन्हें सुननी कहाँ है?ऊपर से एक-दो सब्ज़ियाँँ जो ख़राब हो गईं तो अलग प्रवचन सुनो कि तुम ना ज़रा सी भी हेल्थ कांशस नहीं हो।हमारा फ़्रिज भी देश भर की सब्ज़ियों से लदा पड़ा सांप्रदायिक सद्भाव का उदाहरण देता रहता है।हाँ भई,इंसानों में अब ये दिखता कहाँ है?


ख़ैर, तो हम बातें कर रहे थे बथुए की,तो दोस्तों कलम हाथ में लेते ही आँखों में हरा-भरा बथुआ लहलहाने लगा मानो साफ़ किए जाने की गुज़ारिश कर रहा हो।अब आत्मा की आवाज़ अनसुनी कैसे करें भला? तो हम बैठ गए बथुआ लेकर।अब इसे साफ़ कर ही रहे थे कि मानो मेथी पुकारने लगी कि भई,हमारा क्या कुसूर है?लगे हाथों हमें भी निबटा देते।मेथी की गड्डियाँ निकालने के लिए फ़्रिज ख़ोला ही था कि मटर का पैकेट धड़ाम से गिर पड़ा।उफ़्फ़्, तो अब इसे भी छीलना पड़ेगा?


आपको पता है कि गृहिणियाँ जो कि देश की GDP में मदद नहीं करतीं, उनके काम की भी ना,कोई क़ीमत नहीं होती।अब देखिए ना हम आँगन से दालान तक सारा दिन घर सँवारती रहती हैं और ये नाशुक्रे पति पूछते हैं कि "तुम सारा दिन करती क्या हो?"कसम से दिल ना,चाक-चाक हो जाता है।


जिन गृहिणियों ने ना,स्कूल-कॉलेज के दिनों में ज़रा भी मेहनत से पढ़ाई की होगी, उन्हें ये अच्छी तरह पता होगा कि कैसा लगता है जब मलाई कोफ़्ते बनाते समय अचानक से अंदर से कोई कविता आ जाती है।जब दाल की घुटाई करते हुए अचानक से बुद्धिजीविता छलाँगें मारने लगती है।कसम से, सब पोपट हो जाता है, अपना नहीं, खाने का... हाहाहा।ऊपर से ना, इस सोशल मीडिया ने हमारे इस निराशावाद को ज़रा और हवा दे दी है।


अब मुझे ही देखिए, कैसे मैं बथुए से बुद्धिजीविता पर पहुंच गई।मैं भी ना आजकल ख़ामख़ा इमोशनल हो जाती हूँ।हाँ, तो ये पत्ते साफ़ कर मटर छीलते-छीलते मेरे कमर की हड्डियाँ चरमराने लगीं, आँखों में थकान भी उतरने लगी।एहसास तब हुआ जब मटर अख़बार पर और छिलके डिब्बे में रखने लगी।


ओह मैं भी ना,तो अब लिखना भूल मैं ज़रा आराम करने की सोचने लगी।लो भई,अभी लेटी ही थी कि बेल बजी।खोला तो पड़ोसन सामने खड़ी थीं।चीनी लेने आई थीं।आपको तो पता ही होगा कि ये चीनी लेने वाली मोहतरमाएँ मुफ़्त में ही मुहल्ले भर का गरम मसाला दे जाती हैं।अब मुफ़्त मिलने वाली चीज़ से इनकार कैसे कर सकते हैं, अच्छा थोड़ी ना लगता है? तो दरवाजे पर जमे-जमे ही उन्होंने दुनिया भर की सत्यकथाएँ सुना डालीं।बड़ी मुश्किल से हमने उन्हें समय का हवाला देते हुए जैसे-तैसे दफ़ा अब तक हमारे अंदर की लेखिका और हमारी लेखनी दोनों निढाल हो चुके थे।तो हम भी कलम से माफ़ी मांग कुशन के सहारे सोफ़े पर विराजमान हो गए और ग़म ग़लत करने के लिए टीवी की शरण ले ली।पर कसम से, इस न लिख पाने वाले दर्द की ना दवा नहीं है दोस्तों।और सच कहूँ तो इसी वक्त ना,अपनी लेखिका सखियों से नारीसुलभ ईर्ष्या का अनुभव होता है, जाने कैसे मैनेज करती हैं इतना सब?हाहाहा।


मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित @अर्चना आनंद भारती


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ARCHANA ANAND

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Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sonia Madaan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Enjoyed reading

  • ARCHANA ANAND · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thank you ma'am

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