जी ले ज़रा

पति के सहयोग से दुनिया जीती जा सकती है लेकिन जब पति ही कटघरे में खड़ा कर दे तो कोई कहाँ जाए? चुपचाप सोने चली आई मेघा... आँखों में सावन - भादो तैरने लगे।

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 16 Aug, 2020 | 1 min read
#Social issues #Inspiration

" किससे बात कर रही थीं घंटे भर से ?" प्रणव ने पूछा था।

" मेरी एक दोस्त थी " मेघा ने धीरे से कहा।

" आजकल बड़े दोस्त बनाए जा रहे हैं ?" व्यंग्य से प्रणव ने पूछा।यह सवाल जवाब जानने की गरज से नहीं किया गया था लेकिन मेघा ने धीमी आवाज़ में कहा " ऐसा नहीं है, सारा दिन घर पर ही रहती हूँ तो थोड़ी बातचीत कर ली ,क्यों क्या हुआ ?"

" शरीफ घर की औरतों के यही लक्षण हैं? देख रहा हूँ आजकल मनमर्जियाँ बहुत बढ़ गई हैं तुम्हारी ।"

" पर ऐसा क्या कर दिया मैंने ?"

" मैं क्या जानता नहीं? दुनिया भर के आभासी दोस्त बना रखे हैं।लेखन के नाम पर गुलछर्रे उड़ाए जा रहे हैं, तुम्हें क्या लगता है, मैं समझता नहीं ?"


मेघा इस अचानक हुए हमले से बौखला गई थी। "घर के सारे काम निबटाकर अगर थोड़ी देर किसी से थोड़ी गपशप कर ली तो ऐसा क्या अनर्थ हो गया ?" उसने अपना पक्ष रखना चाहा था।उसकी इसी बात पर प्रणव तमतमा उठा था और अपने मन का सारा गुबार मेघा पर उड़ेल दिया था।लगे हाथों उसके चरित्र पर भी छींटाकशी करता चला गया था वह।बचाव में मेघा ने भी अपना पक्ष रखा और फिर तकरार बढ़ती चली गई।


फिर तो घंटों चीखता रहा था वह मेघा पर और सहमी सी मेघा चुपचाप खड़ी रह गई थी।पति के सहारे दुनिया जीती जा सकती है लेकिन जब पति ही कटघरे में खड़ा कर दे तो कोई कहाँ जाए? चुपचाप उसे अनसुना करने की कोशिश करती हुई सोने चली आई थी मेघा।आँखों में सावन - भादो तैरने लगे।अनवरत बरसती आँखों में कितनी ही बातें, कितनी ही यादें तैरने लगीं।


छुईमुई सी थी वो जब प्रणव के साथ सात फेरे लिए थे।उच्च शिक्षा की अदम्य लालसा थी उसके अंदर लेकिन घरवालों ने शादी करा दी थी।पति से जब पढ़ने की इच्छा जताई तो उसने साफ सीधे मना कर दिया था।साथ ही एक ताना भी उछाल दिया था - " पढ़ने की इतनी ही इच्छा थी तो शादी क्यों कर दी घरवालों ने ?"

मेघा अपने आँसू पीकर रह गई थी।वह अब अपने तथाकथित घर की बंदिनी थी।उसकी सुघड़ता घर भर पर अपनी छाप छोड़ गई पर पति के दिल पर नहीं।तिल भर भी जगह वह अपने पति के पाषाण हृदय में नहीं बना पाई।

प्रणव पितृसत्ता का वाहक पति था।ज़रा ज़रा सी बात पर चिल्लाना उसकी आदत थी और व्यंग्य करना उसका शगल।


पति में प्रेमी तलाशती मेघा हरसंभव प्रयास करती पर कभी भी उसे संतुष्ट नहीं कर पाती।आख़िर हारकर मेघा ने उससे कुछ भी शेयर करना बंद कर दिया।सोशल मीडिया पर लोगों को लिखते पढ़ते देख उसे भी थोड़ा उत्साह जगा और उसने कहानियाँ , कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं।सरल स्वभाव की मेघा की रचनाएँ किसी सुरभि की तरह लोगों तक पहुंचने लगीं और कई आभासी मित्र बन गए।पुरुष मित्रों से एक तयशुदा दूरी ही रखी उसने।किसी को दिल तक फटकने भी नहीं दिया।जिसे टूटकर चाहा जब वही तोड़कर रख दे तो भला गैरों से कोई अपेक्षा भी क्यों करे ?


पर आज प्रणव का व्यवहार उसे अंदर तक रुला गया था।कानों में पिघले शीशे सा गूंज रहा था - "लेखिका बनेगी ,बड़ी लेखिका, गुलछर्रे उड़ाने का खूब तरीका ईजाद किया है।"

वह काँप उठी थी, इतना संभलकर चलने के बाद भी...क्या था यह सब ? पुरुष भला पत्नियों को खरीदी हुई संंपत्ति क्यों समझते हैं ?"

रोते रोते ही कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला।

" आज दोपहर तक सोई रहने वाली हैं क्या ?" प्रणव की तेज़ आवाज़ से वो जैसे नीम बेहोशी से जागी थी।आँखों में सूईयाँ सी चुभ रही थीं।रात प्रणव की कही गई बातें, प्रताड़ना, लांछन सब दिमाग में घूम रहे थे।उसे लगा जैसे दुनिया घूम रही हो।


कोरोनाकाल ने उसके घर को भी उतना ही तबाह किया था जितना विश्व को।पति की कुंठाओं का वह एकमात्र कोपभाजन थी।आँखें गूलर के फूल सी सूजी हुई थीं उसकी।प्रणव ने देखकर भी उसे अनदेखा कर दिया था।मेघा चुपचाप रसोई में चली आई थी।आज कोई तीन महीने बाद प्रणव दफ्तर जा रहा था।नाश्ता बनाकर चुपचाप प्रणव को दफ़्तर भेजकर सोफे पर बैठ गई।आँखों से फिर आषाढ़ बह चला था।तभी बाहर झमाझम बारिश शुरू हो गई।मेघा नहाने के लिए बाथरूम चली गई।देर तक शॉवर के नीचे अपना अवसाद बहाती रही थी वो।जब नहाकर बाहर आई तो बारिश थम चुकी थी, बाहर धुली धूप और चमकीली हरियाली बिछी हुई थी।


मेघा धीरे से हाउसकोट पहन लॉन में चली आई।फूलों पर स्निग्ध धूप बिछी हुई थी, कहीं कहीं पत्तों पर सलोनी नन्हीं बूंदें अठखेलियाँ कर रही थीं।उसने प्रकृति की इस छटा को जमकर अपने कैमरे में कैद किया।लौटकर अपनी पसंद का संगीत लगा दिया।शीशे में खुद को निहारा।ये कैसी हो गई थी वह,हल्का सा मेकअप करके खुद को संवारा।बालों को समेटते हुए अचानक लगा जैसे हम औरतें कितना कुछ समेटती रहती हैं, सिवाय खुद के।संगीत की धुन पर धीरे धीरे थिरकने लगी,मन का अवसाद नृत्य के साथ उतरता हुआ सा महसूस हुआ उसे।


अपने कमरे में आकर खिड़की से परदे सरका दिए।सामने पत्तों से बूंदें धीरे - धीरे मिट्टी में घुलकर मिलती जा रही थीं।पत्ते वैसे ही निष्प्रभ होकर चमक रहे थे।मेघा से जैसे उसके मन ने कहा कि बरसना प्रकृति है और बूंदों का सूखकर मिट्टी में मिल जाना नियति।


उसने एक नज़र घड़ी पर डाली।शाम के छः बजे थे,प्रणव के आने का समय हो चला था।जानती थी कि प्रणव के घर में दाखिल होते ही सबकुछ वैसा ही हो जाएगा - अवसाद से भरपूर और रंगहीन पर उसने तय कर लिया था कि वह सदा ऐसे ही रहेगी ,इन पत्तों की तरह सदाबहार ...एक फीकी सी मुस्कान के साथ उसने अपनी डायरी खोली और उसपर लिख दिया - ' एक भरपूर दिन ।' आख़िर खुश रहने का हक तो सबसे पहले हमारा है न?


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ARCHANA ANAND

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Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sunita Pawar · 3 years ago last edited 3 years ago

    बहुत अच्छी कहानी लिखी है❤️

  • Sonia Madaan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Beautifully penned 👏

  • Sushma Tiwari · 3 years ago last edited 3 years ago

    निशब्द हूं.. एक एक लाइन गहराई से दिल में उतरता चला गया.. क्या लिखा है 🥺🥺"💝

  • ARCHANA ANAND · 3 years ago last edited 3 years ago

    हृदयतल से आभार आप सखियों का @Sunita Pawar, @Sonia Madaan , @Sushma Tiwari 💞🙏

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