नारी मन की व्यथा(गीत)

नारी को देवी मानकर भी आज उसकी काया को पौरुष चुनौती देता है,जो असहनीय हो रहा है.

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विषय-" नारी मन की व्यथा"


शीर्षक-" ये जिंदगी"

व्यथित नारी मन कहे,अब भार है ये जिंदगी,दुश्वार है ये जिंदगी....

भार है ये जिन्दगी...


नियति का पहिया चले है,पुरुष नारी को छले है

सीता हो या राधा प्यारी,यशोधरा,उर्वशी बेचारी

कसी जाएंगीं कसौटी पर,न होगी बंदगी

भार है ये जिन्दगी...

दुश्वार है ये जिंदगी...


पथ में कांटे रोज चुभते,नयन भी सपने न बोते

जिंदादिल होकर भी बेटी,भंवर में खाती है गोते

कायरों की कैद में,झेले दुष्कर्म,दरिंदगी

भार है ये जिन्दगी...दुश्वार है ये जिंदगी...

भार है ये जिन्दगी...


तीरों से तरकश भरें हैं,जुल्म अपने ही करे हैं

हया के पर्दे लगाकर ,शराफत का दम भरे हैं

नजर में उनके भरी है,वासना की गंदगी

भार है ये जिन्दगी...दुश्वार है ये जिंदगी...


तन से कोमल मन से सक्षम,उसको देवी मानते हम

चरण छू मस्तक नवाते,धन्य होकर मोद पाते

फिर भी हिंसक दृष्टि में, शामिल नहीं शर्मिंदगी

भार है ये जिन्दगी...दुश्वार है ये जिंदगी...


घूमते वहशी दरिंदे,दिन-दहाड़े लूटते हैं

नारी की अस्मत से खेलें,कितने ही दिल टूटते हैं

हाय झेली जाए ना,अब हमसे तो ये शर्मिंदगी

भार है ये जिंदगी,दुश्वार है ये जिंदगी...


नारी नर की जन्मदाता,पाक होता मां का नाता

रिश्तों का माधुर्य खोया,बीज विष का किसने बोया?

गर्त में डूबा है पौरुष,दुष्ट की हो बंदगी 

भार है ये जिंदगी...दुश्वार है ये जिंदगी...

  __________

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित एवंअप्रसारित गीत-

डॉ.अंजु लता सिंह गहलौत,नईदिल्ली






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