कविता

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 25 Aug, 2019 | 1 min read

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है


हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है



कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की


गांव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी



बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया


हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था



क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था


हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था



रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था


भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था



सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में


एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में



घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने –


'जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'



निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर


एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़कर



गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया


सुन पड़ा फिर 'माल वो चोरी का तूने क्या किया'



'कैसी चोरी, माल कैसा' उसने जैसे ही कहा


एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा



होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर


ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर–



'मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो


आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो'



और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी


बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी



दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था


वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था



घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे


कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे



'कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं


हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं'



यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से


आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से



फिर दहाड़े, 'इनको डंडों से सुधारा जाएगा


ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'



इक सिपाही ने कहा, 'साइकिल किधर को मोड़ दें


होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें'



बोला थानेदार, 'मुर्गे की तरह मत बांग दो


होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो



ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है


ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है'



पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल


'कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल



उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को


सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को



धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को


प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को



मैं निमंत्रण दे रहा हूं- आएं मेरे गांव में


तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में



गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही


या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही



हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए


बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !


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