कविता

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 25 Aug, 2019 | 1 min read

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को


मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको



जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर


मर गई फुलिया बिचारी कि कुएं में डूब कर



है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी


आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी



चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा


मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा



कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई


लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई



कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है


जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है



थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को


सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को



डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से


घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से



आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में


क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में



होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी


मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी



चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई


छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई



दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया


वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया



और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में


होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में



जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था


जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था



बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है


पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है



कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं


कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं



कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें


और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें



बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से


बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से



पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में


वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में



दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर


देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर



क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया


कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया



कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो


सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो



देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां


पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां



जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है


हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है



भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ


फिर कोई बांहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ



आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई


जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई



वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई


वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

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