रावण:एक आततायी

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 24 Sep, 2019 | 1 min read

रावण:एक आततायी

 


‘मनोवांछित वरदान पाकर रावण अत्यंत शक्तिशाली हो गया है’-यह समाचार सुनकर माल्यवान् की खुशी का ठिकाना न रहा। अनेक वर्षों से वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था, जब वह देवताओं को पराजित कर तीनों लोकों पर राक्षसों का साम्राज्य स्थापित करता। रावण के रूप में उसे एक ऐसा वीर राक्षस-योद्धा मिल चुका था, जो बहुत शीघ उसके इस स्वप्न को पूरा कर सकता था। इस बीच उसने राक्षसों को एकत्रित कर एक विशाल सेना तैयार कर ली थी। रावण के घर लौटते ही माल्यवान् ने उसे राक्षसों का राजा घोषित कर दिया। यद्यपि विश्रवा ऋषि ने राजा बनने पर रावण को शांतिपूर्वक और न्याययुक्त शासन करने का परामर्श दिया, तथापि देवताओं के प्रति मन में क्रोध रखनेवाले रावण ने तीनों लोकों पर अधिकार करने का निश्चय कर लिया था।


अभिषेक के बाद माल्यवान् राक्षसराज रावण को समझाते हुए बोला, ‘‘रावण, तुम महा पराक्रमी, तेजस्वी और देवताओं से भी अधिक बलशाली हो। राक्षसराज के पद पर आसीन होकर तुम्हारा कार्य राक्षसों का कल्याण और बल-वृद्धि करना है। परंतु इससे पूर्व तुम्हें एक ऐसे स्थान की आवश्यकता है, जहाँ से तुम कुशलतापूर्वक राक्षसों का नेतृत्व कर सको। रावण, पूर्व में स्वर्ण-निर्मित लंका राक्षसों का आश्रय-स्थल थी, परंतु कपटी देवताओं ने इसे छीन लिया। इस समय वहाँ कुबेर का निवास है। हे राक्षसराज रावण! सर्वप्रथम तुम कुबेर को परास्त कर लंका को पुनः अपनी राजधानी बनाओ। जिस प्रकार अमरावती नगरी में इंद्र विराजमान है, उसी प्रकार लंका में विराजमान होकर तुम अपने ऐश्वर्य, वैभव और यश में वृद्धि करो।’’

 


रावण को माल्यवान् का परामर्श उचित लगा और उसने उसी समय अपना एक दूत कुबेर के पास भेजकर उसे लंका छोड़ने अथवा युद्ध करने के लिए ललकारा।

 


कुबेर विश्रवा ऋषि का प्रथम पुत्र था, जो उनकी पहली पत्नी इड़बिड़ा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार वह रावण, कुंभकर्ण और विभीषण का सौतेला भाई था। बचपन से ही कुबेर धार्मिक प्रवृत्ति का था। इसलिए पिता द्वारा दीक्षित होने के बाद उसने कठोर तपस्या आरंभ कर दी। अनेक वर्षों तक तप करके उसने बह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे वरदान-स्वरूप देवपद प्राप्त कर लिया। साथ-ही-साथ बह्माजी ने कुबेर को लंका का राज्य सौंप दिया। तभी से कुबेर समस्त ऐश्वर्यों से युक्त होकर लंका में निवास कर रहा था।

 


रावण का संदेश पाकर कुबेर चिंता में पड़ गया। चुपचाप लंका छोड़ने का अर्थ था-राक्षसों के समक्ष पराजय स्वीकार कर लेना। लेकिन लंका के लिए वह अपने भाई से युद्ध भी नहीं करना चाहता था। इस दुविधा भरी स्थिति में कुबेर को पिता का स्मरण हो आया। वह उसी समय पुष्पक विमान में बैठकर विश्रवा ऋषि के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात बताई।

 


विश्रवा उसे समझाते हुए बोले, ‘‘पुत्र! रावण तुम्हारा भाई होने पर भी तुमसे युद्ध के लिए तैयार है। इसलिए तुम भी सभी संबंधों से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करो।’’

 


कुबेर अब दुविधा से उबर चुका था। उसने लंका छोड़ने से इनकार कर दिया। उसका यह दुसाहस देख रावण क्रोध से भर उठा और उसने विशाल सेना लेकर लंका पर आक्रमण कर दिया। बहुत दिनों तक घमासान युद्ध होता रहा। अंत में शक्तिशाली रावण के समक्ष कुबेर पराजित हो गया और प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ।

 


इस प्रकार कालांतर में जिस लंका पर राक्षसों का अधिकार था और बाद में जिसे बह्माजी ने कुबेर को दे दिया था, उस पर पुनः राक्षसों का अधिकार हो गया। इसके अतिरिक्त कुबेर का पुष्पक विमान भी रावण ने छीन लिया था। अब रावण लंका के सिंहासन पर आसीन होकर वहीं से राक्षसों का नेतृत्व करने लगा। 

ये कहानी पढ़ने के लिए धन्यवाद! हम ऐसी ही तथ्यात्मक ऐतिहासिक कहानियाँ प्रस्तुत करते रहेंगे! जिससे भारतीय सनातन वैदिक संस्कृति को आज भी जिया जा सके।

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