इलाहाबाद यूनिवर्सिटी

Allahabad university

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Akanksha Nitesh
Akanksha Nitesh 30 Jul, 2020 | 1 min read

इलाहाबाद विश्वविद्यालय




जो कल इलाहाबाद था न आज वह प्रयागराज हो गया है ।लेकिन मैं आज से नहीं हमेशा से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी था। और रहूंगा मेरे तो दिल में ही इलाहाबाद बसता है लोगों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय ही रहूँगा। 134 साल तो मेरी उम्र का पड़ाव मात्र है।

 सबकी नजर में मैं बूढ़ा जरूर हो गया हूं पर मैं अभी भी दिल से जवान हूँ।

 जब हम को बनाए थे तो अंग्रेज लोगों ने सोचा था कि भारत में विश्वविद्यालय के नाम पर हम हमेशा अमर रहे ।हमको" पूरब का ऑक्सफोर्ड "समझकर ही बनाया गया था। और हम अभी तक पूरब का ऑक्सफोर्ड ही थे

 जब सन1887 में हमको गढ़ा गया तो हमको खुद ही नहीं पता था कि बनने के बाद हम न जाने कितनों को गढ़ेंगे।

देश में कुल चार ही तो विश्वविद्यालय थे इन में से एक मुंबई में था । एक कोलकाता में था। एक मद्रास में था ।और उसके बाद इलाहाबाद में चौथे हम थे। नाम तो हमारा खूब था यहां पर आने वाले हर बच्चे को एक ही सपना देखता था कि कि जाने से पहले हाथ में एक अदद नौकरी हो और दुनिया में अपना नाम हो।

हमारी गोदी में भी लाखों बच्चे पलते हैं ,हम भी किसी मां से कम थोड़ी है यहां जो आया हम उसको अपना ही बनाते चले गए। यहां पर आने वाले बच्चों में बहुत कुछ खास था कुछ अलग करने की ललक रहा करती थी मोतीलाल नेहरू हो या शंकर दयाल शर्मा हो गोविंद बल्लभ पंत हो या विश्वनाथ प्रताप सिंह हो चंद्र शेखर जी हो या गुलजारीलाल नंदा हो और तो और महादेवी वर्मा हो या हरिवंश राय बच्चन निराला जी हो या फिराक गोरखपुरी जो हमारे पास आया वह हमारा ही हो कर गया।



यहीं पर बैठे-बैठे निराला जी ने कभी कहा होगा वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर। 

यही पर मैं साक्षी बना था चंदर और सुधा के प्रेम का ।

यहीं पर महादेवी वर्मा जी ने 

-" मैं नीर भरी दुख की बदली" महसूस किया होगा।

यही से मधुशाला का रसगान आया था।

और न जाने कितने यहां पर गुमनाम शख्स आते हैं अपने नाम की लौ जलाने के लिए मैं सब का साथ देता रहता हूं।

यह रूह से रूह के मुलाकात होती हैं यह जो नए-नए नौजवान आते हैं ना चाय की चुस्की के साथ सिर्फ बड़े ख्वाब देखा करते हैं। शायद आपको जानकर आश्चर्य हो कि कभी यहां से सिर्फ आईएएस और पीसीएस से निकलने का संसाधन मात्र था। यहां जो एक बार आता है ना यही का हो जाता है। और तो और यहां पर आलू प्याज से लेकर किताब कॉपी भी किलो के भाव में बिकता है, क्योंकि यहां सब का मात्रक S I ही है।

 जब तुम लोग यहां से मुंह मोड़ कर चले जाते हो ना तो बहुत तकलीफ होती है ।कभी पलटकर आओ हमसे मिलो ।देखो हम कैसे हैं ऊपर से तो बहुत बदल गए पर अंदर से अभी भी वैसे ही है जैसा छोड़ के गए हो। हा जब तुम आए ते तो तुम अकेले थे जाते जाते तुम मेरी यादों को थामें जा रहे हो।

अपने किस्सों में जरूर याद करना जब तक हम हैं एक बार मिलने जरूर आना तुम्हारा पुराना इलाहाबाद विश्वविद्यालय जो अब पूरब का ऑक्सफोर्ड नहीं रह गया।

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