अनचाही

यादों के भँवर में अनचाही ना चाहते हुए भी डूबती जा रही थी। कितना गरूर था छोटी सी अनचाही को अपने अनोखे से नाम पर।सच्चाई को स्वीकारने और समय से लड़ने की हिम्मत बखूबी आ चुकी थी उसमें। फिर से एक बार फिर नाम बदलने का निश्चय किया और बन गयी अनचाही।

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Charu Chauhan
Charu Chauhan 17 Aug, 2020 | 1 min read
#parenthood #emotional Lovejustforson girlchild

आँखों पर लगे चश्मे के पीछे से बड़ी बड़ी आँखों से घूरते हुए लगभग अपना आपा खोती हुई डॉ केविन में जोर जोर से चिल्ला रही थी - तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे ये कहने की भी?? जानते भी हो भ्रूण हत्या गैर कानूनी है और मैं चाहूं तो अभी पुलिस को बुलाकर तुम्हें जेल के अन्दर करा सकती हूं। अगर तुमसे नहीं पाली जाएगी लड़की तो मुझे दे जाना। लेकिन खबरदार जो इसे मारने की सोची भी तो.....

पति- पत्नी, डॉ का ऐसा रूप देखकर सकपका गए। पत्नी ने हिम्मत करके कहा हमारे पहले से एक बेटी है इसलिए हमें और की चाहत नहीं है। यह सुनकर डॉ एक दम चुप सी हो गयी, जैसे अन्दर कोई तूफान आ गया हो..... बिन चाहत के पैदा होने के बाद किसी की ज़िन्दगी कैसी होती है ये उससे (डॉ) बेहतर कौन समझता....?? वो खड़ी रह गई निशब्द....... तभी नर्स ने आवाज लगायी डॉ अनचाही प्लीज जल्दी आइए एक emergency है । दंपत्ति को फिर से एक बार सोच लेने के लिए कह कर अनचाही तुरंत emergency रूम में भागी।

महिला का सिजेरियन हुई और एक बेटा पैदा हुआ। ऑपरेशन ऑपरेट कर के अनचाही ऑपरेशन थिएटर से बाहर निकली तो पोते के जनम पर दादा दादी, बच्चे का पिता सब बहुत ही ज्यादा खुश थे, स्टाफ में भी मिठाइयाँ बांटी जाने की तैयारी हो रही थी। रिश्तेदारी में कॉल कर कर के बताया जा रहा था तो कई रिश्तेदारों के कॉल उत्सुकता पूर्वक आ रहे थे पूछने के लिए कि बेटा हुआ या बेटी??

डॉ अनचाही के लिए यह सब देखना कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन आज सुबह की बात से मन कुछ ज्यादा ही बेचैन था। फ्रेश होकर अनचाही फिर से अपने चेयर पर आ बैठी। लंच टाईम था तो मरीज़ कुछ कम ही थे। लंच करने का मन नहीं हुआ तो सिर्फ चाय मँगवा ली। लेकिन कब चाय से धुएँ के छल्ले निकलने बंद हुए और चाय ठंडी हो गयी अनचाही को पता ही नहीं चला। हर जख्म को वक़्त भर पाए ये जरूरी नहीं होता, कुछ दर्द और दुख समय के साथ गहरे भी हुए जाते हैं। कुछ ऐसा ही दर्द था अनचाही का जो हमेशा के लिए उसके साथ जुड़ा था। "डॉ" आगे लगने के बाद भी रही तो वो अनचाही ही। और जब कोई सुबह जैसी घटना होती है तो कुछ ज्यादा ही हाइपर हो जाती है । और दर्द फिर से वही हरा का हरा हो जाता है।

यादों के भँवर में अनचाही ना चाहते हुए भी डूबती जा रही थी। कितना गरूर था छोटी सी अनचाही को अपने अनोखे से नाम पर। 4 साल की उम्र में घर से बाहर कुछ हम उम्र बच्चो और बड़ो बच्चो के साथ खेलते समय उससे कुछ एक 2-3 साल बड़े राजू ने कह दिया था कैसा नाम है तेरा....?? कुछ समझ ही नहीं आता कि ये क्यू है तेरा??? कितना लड़ी थी अनचाही उससे । बात एक दूसरे को मारने तक पहुंच गयी थी। घर वालों ने आकर बीच बचाव किया था। अनचाही को अपना नाम बहुत प्यारा था....उसे लगता था कि मम्मा पापा बहुत प्यार करते हैं इसलिए कुछ अलग सा बहुत प्यारा नाम रखा है उसका। एक ऐसा नाम जो सिर्फ उसके आसपास ही नहीं दूर दूर तक किसी रिश्तेदारी तक में ना था। घर में 6 भाई बहनों में 5 वे नंबर की लड़की थी अनचाही , और एक छोटा भाई।

जैसे जैसे बड़ी हुई घर में अपने साथ हुई नज़रअंदाज़ी/ उपेक्षा को अक्सर महसूस करती थी कि कैसे घर में सिर्फ भाई को हर नये मेले में नए नए खिलौने मिलते हैं तो कभी हर त्योहार पर नए कपड़े। उन्हें तो सिर्फ गुब्बारा दिला कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते थे माँ बाबा। यहां तक कि रिश्तेदार भी अगर आते तो कैसे सब भैया को ही गोद लेते, प्यार करते और जाते वक़्त शगुन भी सिर्फ उसी को हाथ में मिलता। बड़ी बहने हालत के साथ रहना सीख गयी थी और अपने खुश मिजाज़ और मस्त मोला व्यवहार के कारण अनचाही भी जल्दी ही सब भूल भी जाया करती थी।

अनचाही पढ़ने में काफी अच्छी थी, हर साल अच्छे ग्रेड लेकर आती। लेकिन उसके नाम का मजाक बनाना यहां भी नहीं छूटा। सीनियर उसका नाम पुकारते और फिर दाँत भींच कर हँसते हुए निकल जातें। तब भी अनचाही बिन ज्यादा सोचे सिर्फ ज़ोर से खिलखिला देती थी।

फिर अनचाही उनके ऐसा करने का मतलब तब समझ पायी जब 4th क्लास में नीलम मैडम उसकी क्लास टीचर बनी जो साथ ही उसकी हिंदी की भी टीचर थी। जब पहले दिन रजिस्टर में उन्होने अनचाही नाम देखा तो बहुत अजीब लगा था उन्हें। 10-12 दिन बीते, मैम अनचाही की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थी तो एक दिन ऐसे ही नाम का मतलब पूछ लिया अनचाही से। अनचाही शांत... उसे अपना नाम पसंद था लेकिन मतलब नहीं पता था। फिर टीचर ने जब उसे बताया उसके नाम का मतलब है 'बिना चाहत " या" बिन मर्ज़ी के"।

बाल मन था लेकिन समझ पूरी थी । आँखों की चमक की जगह आँसूओं ने ले ली। हमेशा मुस्कुराते होंठ सी से गए.....पूछना चाहती थी बहुत कुछ लेकिन मुंह में तो जुबान जैसे जम सी गयी.....

नाम का मतलब जानना अनचाही के लिए एक सदमे के जैसे था। नाम सुनकर जहाँ पहले इतरा कर मुंह बनाती थी अब सबसे नज़रें चुराने लगी थी। घर में कभी कभी चुपके से रो लेती तो कभी सिर्फ सिसकियों से दर्द मिटाने की कोशिश करती। जानना चाहती थी माँ बाबा से कि वो अनचाही क्यूँ है...... ???? लेकिन पूछने की हिम्मत ना जुटा सकी। बड़ी बहनें उसका दर्द समझती थीं लेकिन कुछ कर नहीं सकीं क्युकी कहीं ना कहीं उस दुख से गुजर रहीं थीं, फर्क सिर्फ इतना था कि कम से कम उनके नाम से सब कुछ जगजाहिर नहीं होता था।

इसका सीधा असर अनचाही की पढ़ाई पर पड़ा। अच्छी भली होशियार लड़की की परफॉर्मेंस लगातार गिरती जा रही थी। हाफ इयरली एक्जाम के बाद अनचाही को नीलम मैडम ने खास हिदायत दी कि इस बार पैरेंट्स टीचर मीटिंग में अपनी मम्मी पापा को जरूर लाए क्युकी वो कभी उसके स्कूल आते ही नहीं थे। पढ़ा रहे थे शायद उनके लिए इतना ही काफी था......

बेमन से ज़िद कर मम्मी पापा को स्कूल तक लायी। मैडम से मिलने पर भी कुछ खास जिज्ञासा उन्हें अनचाही के मार्क्स जानने की नहीं थी और ना ही कोई चिंता उसके परफॉर्मेंस की। कुछ तो था जो नीलम मैम भांप गयी थीं। टीचर ने अनचाही को बाहर जाने के लिए कहा। लेकिन वह वहाँ से जाना नहीं चाहती थी। एक तरफ उसकी टीचर का ऑर्डर (जो दिमाग मानना चाहता था) और दूसरी तरफ बेटी दिल.....! अनचाही के दिमाग और दिल में जंग सी छिड़ी गयी । दिल के आगे आखिर दिमाग को हार माननी ही पड़ी क्युकी शायद यही एक मौका था जब वह अपने बारे में उन सवालों के जवाब जान पाए जो महीनो से दीमक की तरह उसे खाए जा रहें हैं।

अनचाही रूम से निकली तो लेकिन बाहर ही गेट के पीछे छिप गयी। मैम का माँ बाबा से सबसे पहला सवाल यही था कि आपकी बेटी का नाम अनचाही क्यों है...???

पापा कुछ बोलते उससे पहले माँ बोल पड़ी थी - अरे मैडम, अनचाही ही है वो। हम तो बेटा चाहते थे लेकिन एक के बाद एक कर पाँच हो गयीं ये छोरियां। इसलिए हमने छोटी का नाम अनचाही ही रख दिया। धक सी रह गयी अनचाही ये सुनकर। लेकिन खुद को संभाले खड़ी रही..... अनचाही अभी और सुनना चाहती थी।

नीलम मैम को गुस्सा आ रहा था अनचाही दरवाज़े की बीच की दरार से साफ उन्हें देख सकती थी। वो बोल रहीं थीं आपको जरा भी फिकर उसकी पढ़ाई की भी है या नहीं?? टॉप में रहने वाली लड़की पिछड़ों में आती जा रही है।

इस बार भड़ास निकालने की बारी शायद पापा की थी....

पापा - हम उसे पढ़ा तो रहें हैं अच्छे से नहीं पढ़ रही है तो हम क्या करें.....? खैर, हमे उसे कोई बहुत ज्यादा पढ़ाना लिखना तो है नहीं जी ।

नीलम मैडम - क्यों सर ? क्या आपको कोई आर्थिक परेशानी है? क्यों आप ज्यादा नहीं पढ़ाएंगे....??

मम्मी - ना ना... भगवान् का दिया वैसे तो ठीक ठाक है लेकिन क्या करेंगे ज्यादा पढ़ा कर....? फिर इतनी लड़कियों की शादी भी तो करनी है हमे । बिन पढ़ी लड़की की शादी में आज कल बहुत दिक्कत आती है तो उस हिसाब से पढ़ा देंगे। आप क्यों ये सब सोचती हैं।

मैम लगभग चिल्ला सी पड़ीं..... आप थोड़ा अनचाही के बारे में तो सोचिए। और सबसे पहले उसका नाम बदलने की सोचिए आप। इस नाम के साथ उसका आत्मविश्वास दिन ब दिन टूटता जा रहा है। मानसिक तौर पर बहुत तकलीफ में है आपकी लड़की। आप उसे स्वाभिमानी ज़िन्दगी ना सही लेकिन एक स्वाभिमानी नाम तो दे ही सकते हैं....?? आखिर माँ बाप हैं आप उसके।

आगे क्या बात हुई हिम्मत नहीं थी सुनने की। मम्मी पापा के शब्द पिघले लोहे की तरह अनचाही के कानों में जा रहे थे। बेसुध सी भागती हुई एक झूले पर जा बैठी। जितना रो सकती थी रो ली।

मम्मी पापा को ज्यादा समझाना भी शायद ठीक नहीं था। नीलम मैम जितना टीचर होने के नाते समझा सकती थीं उन्होने किया। साथ ही उसी दिन नाम बदलवाने की सारी प्रकिया भी पूरी करा ली। नाम बदल कर रखा गया अंजलि।

नीलम मैम ने मानसिक तनाव से उभारने में बहुत मदद की। लेकिन एक टीस अब भी अनचाही के मन में थी जो उसे अन्दर ही अन्दर खाए जा रही थी। अनचाही से अंजलि तो बन गयी लेकिन परिवार में वो आज भी अनचाही ही थी। घर, पास पड़ोस में अब भी यह नाम उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था। इससे बचने के लिए खुद को बस पढ़ाई में डुबाए रखती..... अब वह क्लास 8th में आ गयी थी सच्चाई को स्वीकारने और समय से लड़ने की हिम्मत बखूबी आ चुकी थी उसमें। फिर से एक बार फिर नाम बदलने का निश्चय किया और बन गयी अनचाही।

सत्य को स्वीकार करना चाहती थी ना कि भागना । दसवीं की परीक्षा में ज़िले में दूसरे स्थान पर आने वाली लड़की बनी अनचाही। टीचर्स से रिश्तेदारों से खूब प्रोत्साहन मिला। माता पिता का भी नाम ऊंचा हो रहा था तो आगे की शिक्षा के लिए रोक नहीं पाए। समय समय पर छात्रवृत्ति भी अनचाही को मिलती रही, जिससे माता पिता के पास कोई खास वजह नहीं रही अनचाही को ना पढ़ाने की । लेकिन जो स्नेह और वात्सल्य चाहती थी वो कभी नहीं पा पायी। तकलीफों से अनवरत संघर्ष करते हुए अनचाही बन गयी "डॉ अनचाही"।

वर्तमान में अनचाही को ये सब सोचते सोचते कब पूरा लंच टाईम निकल गया पता ही नहीं चला। तब भी एक प्यारी सी आवाज से उसकी निन्द्रा भंग हुई। देखा तो सामने रूही खड़ी मुस्कुरा रही थी।

रूही - कहाँ खोए हुए हो आप मम्मी....?? आज तो आपने जल्दी फ्री होने का वादा किया था फिर अभी भी यही क्यो बैठी हैं....? क्या आप भूल गयी हो आज मनचाही की दसवीं वर्षगांठ है और साथ ही मेरी भी..... ।

अनचाही ने मुस्कुराते हुए उसके सर पर हाथ फेरा और बोली - नहीं बच्चे सब याद है। बस मैं आने ही वाली थी। चलो अब सब मिल कर शाम की तैयारी करते हैं।

डॉ बनने के बाद घर वालों ने जब भी शादी के लिए कहा.... अनचाही खुद को तैयार नहीं कर पायी। कुछ ऐसा करना चाहती थी जिसमे उसे सुकून मिले और साथ ही किसी की उपेक्षा ना हो। ये मौका मिले उसे रूही से...... ।

10 साल पहले आज के ही दिन रूही उसे सुबह सुबह पार्क के बाहर पड़ी मिली थी जिसे ना सिर्फ अनचाही ने अपनाया अपना सब कुछ मान लिया। साथ ही आज 40 की उम्र में अनचाही ऐसी ही 10 लड़कियों की माँ है। जिनके लिए अनचाही ने एक घर "मनचाही" बनाया जहाँ किसी की उपेक्षा नहीं की जाती। आज इसी मनचाही की वर्षगांठ की तैयारियाँ धूमधाम से की जा रही है।

"जिसकी बेटी अनचाही हो वो उसे घर के बाहर छोड़ जाए हमारे लिए वही मनचाही है, मनचाही में उसका स्वागत है"। बस यही कहती हैं डॉ अनचाही.....। अब खुश हैं वो अपनी दुनिया में जहां प्यार, स्नेह और अपनापन है।



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Charu Chauhan

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Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sonia Madaan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Nice story

  • Charu Chauhan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thnku #Sonia Mam

  • Mayur Chauhan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Well written

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