मुसाफ़िर

जीवन यापन की जुगत में कैसे इंसान अपने ही घर में मेहमान हो गया है और मुसाफ़िर बन कर रह गया है। उसी को दर्शाती है मेरी यह कविता।

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Charu Chauhan
Charu Chauhan 05 Mar, 2021 | 1 min read
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घर के आँगन में मुसाफिर सा हूँ, 
नाराज मुझसे मेरे ही आशियाने की चारपाई है।

दो पल ना चैन से बैठ पाता हूँ, 
परिवार के साथ बहुत सी गुफ़्तगू करनी बाकी है। 

रोटी महँगी हो रही है , 
पानी भी अनमोल से मोल दार हो गया।

सर पर छत लाने के लिए, 
खुले आसमान का मुसाफिर हो गया हूँ। 

गुलाबी, नारंगी, जामुनी, कत्थई 
नोटों की परते, मन की गिरह बन रही है। 

फर्ज निभाने के खातिर, 
अपनी ही इच्छाओं का कर्जदार हो गया हूं। 

जीने के लिए यह सफर तय करना ही है, 
देख जिंदगी, मैं तेरी राह का एक मुसाफ़िर हूँ।। 


स्वरचित

© चारु चौहान

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