मामूली ख्याल

एक कविता मैं चाहूं जो ग़ज़ल हो जाएं ।।

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Manu jain
Manu jain 26 Jun, 2020 | 1 min read


बेहद मामूली से लगते 

कुछ महीन ख़यालों ने सोचा 

क्यूँ न कभी गुच्छा बन

एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल हो जाए 

बंजर मैदानो पर मुरझा कर 

दम तोड़ना नहीं है अपनी क़िस्मत

अब वक्त है के मिल कर 

एक लहलहाती फ़सल हो जाएँ

पन्ने किताबों में पड़े पड़े 

ज़रा फ़र्ज़ी से मालूम देते है अब 

कभी होंठों से छू ले कोई 

तो हम भी दर असल हो जाएँ 

दो पल रुक कर कोई राही

हमें भी कभी सजदा करें 

कभी हम भी तो संजीदा हो कर

इबादत की नसल हो जाएँ 

ग़र ज़माने के समुंदर में हो डूबना

तो बिखरें पड़े है कई शोर यहाँ वहाँ

पर जिन्हें खुद में हो डूबना उनकी ख़ातिर

नदियों की लहरो का कल कल हो जाएँ

होंठों से निकल कर रूह तक 

पहुँचना है ये बात तो तय है 

सफ़र जो भी हो क्या फ़र्क़ है मनीष

इत्मीनान ना सही तो बामुश्किल हो जाएँ 

बेशक़ मुमकिन है कि कोई 

समझ ही ना पाए हमें यहाँ

हम तुम समझ ले एक बार खुद्को

बस इतना ही मुकम्मल हो जाएँ 

बेहद मामूली से लगते 

कुछ महीन ख़यालों ने सोचा 

क्यूँ ना कभी गुच्छा बन 

एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल हो जाएँ

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Comments

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  • indu inshail · 5 years ago last edited 5 years ago

    Very beautiful महीन ख्यालों का गुच्छा???

  • Manu jain · 5 years ago last edited 5 years ago

    Thank you ? parody queen ❤️❤️

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