हम कितना बदले

मैं अपने देश को बदलता देख रहा था

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Dr. Pratik Prabhakar
Dr. Pratik Prabhakar 26 Jul, 2021 | 1 min read
Bihar Citizen Buddhist India Railway

"हम कितना बदले"



खुद की समीक्षा करना अच्छी बात है। जब बारी दूसरों के समीक्षा कि आती है तो काफी सोंच समझ कर कुछ कहना होता है। 'स्व' से बढ़कर 'पर' के बारे में सोंचना काफी मुश्किल होता है ।


भारतीय रेलवे हमेशा से मुझे लेखन के लिए अच्छी कहानियां प्रदान करता रहा है। ऐसा इस लिए भी कि भारतीय रेल देश की धमनी की तरह है। 

हर तरह के लोग आपको रेलगाड़ी में मिल जायेंगे , हर तरह के वेशभूषा वाले, हर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश वाले। आप पूरा भारत देख सकते है एक साथ ।

बात जब हमारे बदलाव की होती है तो पता ही नहीं चलता कि क्या बदला । मैं बताता हूं । आपने देखा कि लोग अब खाने पीने की चीजों के रेपर अपनी बैग में ही डाल लेते है वो उन्हें रेलगाड़ी के कंपार्टमेंट में नहीं फेंकते।

मेरे कम्पार्टमेंट में कुछ बौद्ध सैलानी बैठे थे , लाल कपडे पहने । शायद वो बोधगया जा रहे थें।



सैलानी को घुलने- मिलने में काफी वक़्त लगा अन्य सहयात्रियों से। पर जब घुले मिले तो उनमे से एक सैलानी ने एक बच्ची को आइस क्रीम ख़रीद कर खिलाया । ये बदलाव नहीं तो और क्या है?वही कुछ अन्य यात्री यह सोंच हँस रहे थे कि इन सैलानियों को दाढ़ी मूछ बनवाने के पैसे नहीं लगते होंगे ,चूँकि उनके दाढ़ी-मूंछ सही से नहीं आये थे।



कुछ वक़्त बाद बादाम बेचने वाला आया और एक सैलानी ने बादाम खरीदा , चूँकि उनके पास छुट्टे नहीं थे तो उन्होंने पचास रुपये के नोट दिए । बादाम वाले के पास भी छुट्टे नहीं थे तो उसने थोड़ी देर में वापस करने का वादा किया।पांच मिनट हो गए पर बादाम वाला नहीं आया , पंद्रह मिनट बाद वह वापस आया। देर आने का कारण उसका भटक जाना था। उसने रुपए वापस किये । और अजीब सी खुशी के साथ भीड़ में ग़ुम हो गया ।



सैलानी कैसी यादें लेकर गये होंगे पता नहीं । पर मैं रेलगाड़ी में बैठा-बैठा ही अपने देश को बदलता हुआ देख रहा था।








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